आईए, समाज को समाज से जोड़ें!
डा. अपर्णा धीर खण्डेलवाल
कभी-कभी जिंदगी के छोटे-छोटे किस्से भी बहुत बड़ी सीख दे जाते हैं और हम कभी उन्हें वैसे महसूस नहीं करते। लेकिन जब सामने हो रहे होते हैं, तब किसी याद के रूप में वह अक्सर हमें भीड़ में भी अकेला कर देते हैं यानी वह हमें उस पल में पिछली जिंदगी के कुछ लमहों की याद दिला जाते हैं।
ऐसा ही एक किस्सा अभी कुछ ही दिन पहले मेरे साथ हुआ। मैं किसी कारणवश अपनी माताजी को लेकर बैंक गई, वहाँ मैंने देखा लंबी कतार थी पासबुक की entry कराने के लिए लेकिन, सामने जो बैंक-employee था वह पहले तो अपनी सीट पर नहीं था, फिर जब आया तब उसने कहा कि ‘इतना वक्त नहीं है हमारे पास कि हम सबकी पासबुक में एंट्रीयाँ करते रहे, आपके लिए मशीन लगा रखी है जाईए अपनी पासबुक उसमें से पूरी करा लीजिए’। तब जो लोग तो उस कतार में पढ़े-लिखे थे, वह तो भागकर अपनी पासबुक को ऑनलाइन मशीन से पूरा कराने लगे परन्तु जो लोग बेचारे कुछ गरीब वर्ग के थे, या ज्यादा शिक्षित नहीं थे, उन्होंने बार-बार उस व्यक्ति से आग्रह किया कि ‘भाईसाहब हमें मशीन नहीं चलानी आती, हम पढ़े-लिखे नहीं हैं, हमें नहीं पता कि पासबुक में मशीन से एंट्री कैसे होगी, कृपया आप ही कर दीजिए’। तो वह बैंक-employee बोला कि अगर ‘मैं इस तरह से सबकी एंट्रियाँ करने लगूंगा, तो कोई और काम नहीं है क्या हमारे पास करने के लिए’। उसका यह जवाब थोड़ा कड़क भी था और थोड़ा संवेदनशीलता से दूर भी था। मैं पीछे खड़ी कतार में देख रही थी, मैंने आगे बढ़कर उन आशिक्षित लोगों की पासबुक में एंट्री करवाई।
समय बहुमूल्य है, पर पता नहीं क्यों ऐसा मन में आया कि यदि मैं इनकी मदद नहीं करूंगी तो यह आज भी निराशा से ही घर लौटेंगे, क्या पता किसके घर में कैसी ज़रूरत है कि उसे पासबुक की एंट्री देखकर ही अपने खाते का ज्ञान होता हो। तब उस दौरान एकदम से मुझे मेरे स्वर्गीय पिताजी के शब्द ध्यान में आए जो जब भी सरकारी बैंकों में जाते, अक्सर यही बात कहते कि ‘यह मुझे पता नहीं चलता की सरकार ने सरकारी employees जनता की मदद के लिए रखें है या कि जनता को तंग करने के लिए?’ यह उक्ति वो अक्सर कहा करते थे। तब हम इतने छोटे थे कि उनकी बात को या तो हंसी में टाल देते थे या हमेशा यह सोचते थे कि पापा आप क्यों सरकारी लोगों से पंगे लेते हो। पर आज जब हम सूझबूझ रखने लगे हैं, तब ऐसा लगता है कि वास्तव में जीवन ऐसा ही है जो ऊंचे पदों पर हैं वें अक्सर ऐसा ही बर्ताव करते हुए नज़र आते हैं जबकि उन्हें सदा समाज के प्रत्येक नागरिक के प्रति संवेदना रखते हुए सरकारी कार्यवाही को करना चाहिए। [क्योंकि] केवल खानापूर्ति [कर्त्तव्य पूरा] करना ही किसी पद की गरिमा नहीं होती, उसमें संवेदना का भी उतना ही गहरा रिश्ता होता है और यही रिश्ता समाज को समाज से जोड़ता है।
– डा. अपर्णा धीर खण्डेलवाल, असिस्टेन्ट प्रोफेसर, इन्स्टिटयूट आफ ऎड्वान्स्ट साइन्सीस, डार्टमोथ, यू.एस.ए.
10 Responses
Truly said
This is fact.
Nicely narrated.
बिल्कुल सही अपर्णा जी
कमियां निकलना आसान है पर आगे बढ़ कर मदद करना मुश्किल।
आपने यही कर दिखाया।
साधुवाद!!!
Aj ki bhagti huyee life me itna kiske pas time hai ..aapne bahut achchha kaam kiya ..
यह लेख पढ़कर मन में अत्यंत ख़ुशी हुई कि मेरे जैसा कोई और भी इस वेदना को मन की गहराइयों से महसूस कर रहा था, आप अपर्णा। मैं भी जब Gaderwara एसबीआई में जाती हूँ, तो पहले और अभी भी किस-किस तरह से वृद्ध, अनपढ़, कमजोर लोगो को कम से कम एकाध घंटे सहायता करती हूँ। लोगो का फ़ार्म भरना, घंटों अस्वस्थ वृद्ध लोगो का लाइन में घंटों खड़ा होने की वजह स्वयं मैं खड़ी होती हू ताकि वह बैठ सके थोड़ी देर, पासबुक की बात तो तुमने लिख ही दी है अरे अनगिनत पीड़ादायक अनुभव……मुझे लगता है कि बैंक में जॉब देने के साथ इन लोगो के मानवीय व्यवहार की भी कठिन परीक्षा होनी चाहिए। वही मैने देखा था २०१४ मोदी जी के आने के पहले वड़े व्यापारी तो एकदम अंदर काउंटर के तक पहुँच जाते थे जैसे अपने बाप का घर हो….मानवीय मूल्यों के साथ जीना हमें तो अपने माता-पिता से विरासत में मिला है। अभी मैंने गाँव में कुछ महीने बिताये वहाँ भी वही समस्या है। कुछ पैसे वाले और पैसे वालों के बच्चों में गरीब, शोषित के प्रति संवेदनाओं की कमी। दूसरों के दुख को समझ पाना सबमें कहाँ?
keep writing, beautiful writing
1 Thanks for helping all the bank customers in need of help.
2 Even a bank chaukidaara (almost always) standing nearby such machines are capable of helping the people who are not capable of alertly operating such machines (due to some sickness or old age etc.). All bank branches should encourage their chaukidaara type employees to extend a helping hand to their needy customers.
3 There is a ‘subhaashita’ in sansKRuta saying even the God_Sun is too hot and too harsh whenever and wherever it has risen to the peak point in the sky.
आपने बहुत अच्छा कार्य किया. आप इसके लिए बधाई की पात्र है और इसके साथ ही आपका धन्यवाद जो इंसानियत पीढ़ी दर पीढ़ी ख़त्म होती जा रही है, आपने उसे संजोकर रखा हुआ है.
(Comments received via Whats App ) –
Dr. Aparna ji, another excellent creative article from you, giving us a deep view into the complex threads that make up India today through one anecdote. One way of bringing a philosophical perspective to such scenes in contemporary India is that there are four epochs co-existing and interacting at the same time in the country: forest communities (VanavAsis – I would include fishing communities along the long western and eastern coasts of India in this), agriculture based communities (made up of rural village communities), industrialized urban communities and mostly metro based digital communities. In your article I notice you bring forth the interaction between the metro based digital community (such as yourself). the structured industrial community (the bureaucratic procedures followed by the bank staff is from the industrial era) and migrants from rural and forest communities who seem to be at a loss on navigating modern industrial and digital paradigm based tools which they are made to depend upon. The protocols used within each of these communities and the protocols for inter-operability between these communities are diverse and not well understood. We muddle through and in the process of muddling through we experience the frustrations and tensions that you focus on in this snapshot of an article. I also loved the awe and wonder with which you are noticing the world as a child, in your photo with your dear father.
by – Shri. Jayant Kalawar, USA
Shi kha aapne, itni achi soch aapki isse ye prerna milti h ki Hume bhi har kisi ki help krni chahiye hai. Baki gov.employees jo karege toh bhugtan bhi unko hi krna pdega. Lekin agar hum is tarah sabki help krege….toh samaj mein sudhar aayega.