रंग-बिरंगी प्रकृति की चमक

डा. अपर्णा धीर खण्डेलवाल

आया होली का त्योहार……लाया रंगों की फुहार

रंग भी ऐसे………जिसने खिलखिला दिया प्रकृति को

गुलाल तो केवल…..प्रतीक है उन रंगों का,

जिन से……चमक उठी है संपूर्ण धरा

शीत लहर के…..छटते ही

पीली-सुनहरी बन जाती है…..वसुंधरा

अब बादलों में…..छिपा सा नहीं

खुलकर लालिमा…..बिखेरता है सूरज

पाले से…..झुलसे हुए पत्ते

नवीन कोपलो के साथ….अब मुस्कुराने से लगते हैं

पौधों में आई….एक-एक कोपल

जब जरा-सी….अनावृत होती है

उसके रंग की….झलक

उस पौधे को….तिलक करती हुई सी

मानो आने वाली…रंगों-की-बहार के स्वागत की तैयारी करती है…..

जिधर देखो…. रंग ही रंग

लाल, पीला, नीला, बैंगनी, संत्री, गुलाबी, सफेद….

कहीं-कहीं तो सतरंगी, दो रंगी….फूलों के रंग अनेक

ऐसा कौन-सा रंग नहीं….जो इस मौसम में फूलों में ना दिखे…

घर हो या पार्क…..सड़क हो या इमारत

रंग-बिरंगी इक लहर सी…..दिख रही है सब ओर सी

एक नहीं…दो नहीं

दस-दस फूलों के…. ये प्राकृतिक गुच्छे

आभा समेटे….भेंट बनने को तैयार

बचपन से ही….सुना है मां को

यह कहते हुए…..कि वह फूलों को पढ़ाया करती थी…..

लगता है वही गुण

धीरे से….आ गया मुझ में भी

मैं भी….चुपके-चुपके

फूलों से…. बातें करने लगी

अब पौधे….अपना हाल

मुझे बताने लगे….और

उगते सूरज के साथ….आए हुए नए फूल….

मुझसे इतराने लगे…..

रंगों की छटा….बिखेरते हुए

ये फूल….’हम, में से, कौन ज्यादा रंगीन है’?

ऐसा मुझसे पूछने लगे…..

जिन फूलों को……मैं थोड़ा ज्यादा निहार लेती

वह सीधा मुझे…….उनकी फोटो खींचने के लिए इशारा कर देते

फोटो खिचते ही…..वे फूल,

अपने को ‘Star’ समझने लगते….

और ‘Social-Sites’ पर जाने के लिए…..

 शोर मचाने लगते

अगर मैं गलती से ना कर देती….किसी फूल को

तो गुस्से से मुंह फुलाकर….झटपट कह देते

“अगली बार घूमने जाएगी, तो तेरे पीछे background नहीं बनाएंगे”

प्राकृतिक रंगों की….यही मोह-माया

ना मुझे…..उन्हें आंखों से ओझल करने देती है…..

और ना ही…..   उनसे दूर होने देती है

भगवान की भी…..लीला निराली

जो  वसन्त को ’ऋतुराज’

और प्रकृति के….

इन रंगों से बनाया हमारे जीवन को…..   जीवन्त

धरती मां का….रंग-बिरंगा

यह रूप ही……होलिकोत्सव के आगमन को…..

दर्शाता है

और…..

सभी प्राणियों के मन को…..उल्लास से भरता है

यही रंग-बिरंगें फूल…. होली-पर्व में….

गुलाल के रूप में…..हमारे हाथों में नजर आते हैं

और हम सबके चेहरे को रंग-बिरंगा बनाते हैं…….

आइए! हम सब भी……बिना किसी मनमुटाव के,

बिना किसी भेदभाव के……प्रकृति के समान

खुद को रंग-बिरंगा बना ले

और एक रंग हो जाए!

– डा. अपर्णा धीर खण्डेलवालअसिस्टेन्ट प्रोफेसर, इन्स्टिटयूट आफ ऎड्वान्स्ट साइन्सीस, डार्टमोथ, यू.एस.ए.

यादें होली की

डा. श्रुचि सिंह

होली का पर्व लाया कुछ यादों का पिटारा,

स्कूल से लौटते किसी ने था रंग डाला।

मच गया था खूब रोना- धोना,

कुछ न किया फिर भी मुझको क्यों रंग दिया।

बालमन को रंगों के त्योहार का कुछ भी न था पता,

बस लगा कि हो गया कुछ बुरा।

कुछ बड़े हुये तो गये होलिका दहन में,

‘होलिका मैया की जय’ के थे जयकारे सुने।

निबन्ध में तो मैम ने होलिका को बुरा बतलाया था,

तो होलिका “मैया” कैसे हुई कुछ समझ न आया था।

पापा की मुस्कान इस प्रश्न पर याद आती है,

यह कथा प्रेम और समर्पण भी सिखलाती है।

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भाई ने प्रेमी को सज़ा और ब्याह न होने देने की दी धमकी थी,

भतीजे को मार वरदान से, पति पा लेने की शर्त रखी थी।

होलिका ‘मैया’ है क्योंकि अपने दुशाले से उसने प्रह्लाद को बचाया था,

जिस अग्नि के लिये अस्पृश्य थी उससे मरना स्वीकारा था।

प्रेम की पराकाष्ठा भी कुछ कम न थी,

इलोजी ने उसकी याद में उम्र बिता दी थी।

स्कूल से लौटते ही भाग कर छत पर माँ के पास जाना, पापड़ बनवाना, और चिप्स फैलाना।

गुझिया, सेव, खुर्मों का लालच भी निराला है,

भिन्न-भिन्न रंगो का आकर्षण भी मन मोहने वाला है।

भाग-भाग कर रंग लगाना और खुद को बचाना,

कभी सूखे, तो कभी गीले रंगों से नहाना और नहलाना।

तेल-उबटन और खेल यह भी अहम हिस्सा है,

बिन हँसी-मजाक के त्योहार कहाँ पूरे होने हैं।

कन्या और बड़ों के पैर छुए जाते हैं,

फिर आशीष भी दिये – लिये जाते हैं।

गन्ना खाना भी आसान बात नहीं,

किसने कितना, और कितना जल्दी खाया यह रेस भी है लगनी।

होली है पिरोती हर बार एक नई बात,

पहली होली ब्याहता की नहीं होती सास के साथ।

यूट्यूब ने सुलझायी इस बार यह गुत्थी,

होलिका को जलता देख उसकी सास थी सदमे से मरी ।

अहंकार, बल झूठा, था तब जला प्रेम-भक्ति की आग में,

और आज महाकाल भी भभक उठे केमिकल युक्त गुलाल से।

भगवान भी कह रहे प्राकृतिक रंगों से रंगो मुझको,

यह केमिकल बेटा तुम अपने लिये ही रखो।

मिठाई व्यञ्जन भी यदि देना तो शुद्ध ही देना,

यह मिलावटी मुझको नहीं है लेना।

चलो इंद्र‌धनुष एक बार फिर बनाते हैं,

शुद्ध प्राकृतिक रंगो से जीवन निखारते हैं।

रंगना और रंग जाना कुछ आसान नहीं,

है कृष्ण का राधा से मिलन कुछ आम बात नहीं।

इस बार अयोध्यापुरी भी थी इठलाई,

अपने ही घर में रंगे गये थे जो रघुराई।

आज सब को Happy Holi – Happy Holi,

प्रकृति के साथ-साथ, हमने भी खेल ली।

Dr. Shruchi Singh, Research Associate, Kuruom School of Advanced Sciences [An associate institute of ‘Institute of Advanced Sciences’ (INADS)].

धनतेरस की लक्ष्मी

सुश्री अनुजा सिन्हा

हर वर्ष जब दीपावली आने वाली होती है तो मुझे एक अलग-सा एहसास होता है, एक सुखद अनुभूति होती है। पर्व-त्योहारों की चल रही शृंखला में रोशनी के त्योहार दीपावली की अपनी ही एक सुंदरता है। मुझे जो अनुभूति होती है, उसका एक कारण यह भी है कि मेरा जन्म धनतेरस के दिन हुआ था। प्रत्येक वर्ष मेरा जन्मदिन दीवाली के आस-पास पड़ता है। मेरा जन्म नॉर्मल डिलीवरी से हुआ था इसीलिए माँ मुझे अगले ही दिन घर ले आयीं। मुझसे डेढ़ वर्ष बड़ा भाई घर पर था। दीवाली के पटाखों के शोर में नवजात शिशुओं को परेशानी हो सकती है। वह सहम सकते हैं, शोर के कारण उनके कानों में समस्या हो सकती है, यहाँ तक कि जान का भी खतरा हो सकता है। इन्हीं  कारणों से माँ को डर था कि मुझे कुछ हो न जाये। उन्होंने मुझे बड़ी हिफाज़त से कमरे के अंदर रखा और भरसक कोशिश की कि मुझे आतिशबाज़ी के शोर से परेशानी न हो।

सुश्री अनुजा अपनी माँ के साथ

घर में धनतेरस के दिन बेटी का जन्म होना शुभ माना गया। सबने कहा कि लक्ष्मी घर आई हैं। बचपन से ही धनतेरस के दिन माँ कहा करती थी कि आज के दिन ही तुम्हारा जन्म हुआ है। मुझे एक अजीब सी खुशी होती थी। जब मैं बड़ी हुई, तो मालूम हुआ कि धनतेरस पर भगवान धन्वंतरि की पूजा होती है। वह आयुर्वेद के देवता हैं। बाद में पता चला कि वह भगवान विष्णु के अवतार हैं, जो समुद्र-मंथन के समय प्रकट हुये थे। जिस दिन उनका प्रादुर्भाव हुआ, उस दिन को धनतेरस के रूप में मनाया जाता है।

मेरे मन में यह प्रश्न हमेशा उठता था कि जब धनतेरस पर आयुर्वेद के देवता की पूजा होती है तो यहाँ धन की बात कहाँ से आई ? धनतेरस को लोग धन से क्यों जोड़ते हैं? धन का अर्थ मात्र स्वर्ण या रुपये-पैसे नहीं होता, बल्कि धन का एक अर्थ है जोड़ना। धन अर्थात बढ़ोत्तरी होना। आयुर्वेद के माध्यम से स्वास्थ्य में बढ़ोत्तरी होने को धनतेरस कहते हैं। एक और बात यह है कि वह कहते हैं न धन-धान्य की वृष्टि होती है। यहाँ ‘धान्य’ यानि धान, अर्थात अन्न है। अर्थात अनाज को धन के समान महत्वपूर्ण माना गया है। यहाँ पर यह भी ध्यान देने वाली बात है कि दीपावली के अवसर पर आयुर्वेद के भगवान की उपासना इस कारण से की जाती है कि स्वास्थ्य-धन अन्य भौतिक धन की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण है।

बहरहाल, भारतीय संस्कृति में कन्या को लक्ष्मी का स्वरूप माना जाता है, इसीलिए इस दिन मेरे जन्म को लक्ष्मी से जोड़ना अनुचित नहीं जान पड़ता। परंतु यदि धनतेरस के दिन किसी बालक का जन्म होता है तो यह अवश्य कहना चाहिए कि भगवान धन्वंतरि का आगमन हुआ है! इससे शायद उसके अंदर भी उनके भाव जग जाएँ।  

सुश्री अनुजा सिन्हा, निदेशक, टीसीएन मीडिया

2023 का रक्षाबन्धन-त्यौहार : राखी आज बाँधे या कल…..?

डा. अपर्णा धीर खण्डेलवाल

(डा. अपर्णा अपने भाई और भतीजे को राखी बाँधते हुए)

श्रावण मास की पूर्णिमा रक्षाबन्धन के त्यौहार के नाम से जानी जाती है। इस दिन को इस तिथि को ध्यान में रखकर वर्षों से मनाया जाता आ रहा है, परन्तु 2023 में एक नया शब्द सुनने में आया ‘भद्रा’। यूं तो यह भद्रा-काल ज्योतिषीय काल विशेषज्ञों के द्वारा विचार करने योग्य है, पर आम लोगों के लिए यह सोच का विषय बन गया, क्योंकि 30 अगस्त, 2023 को सूर्य उदय के बाद प्रात: 10.45 पर पूर्णिमा तिथि शुरु हो गई, लगभग उसी समय प्रात: 11.00 बजे भद्रा भी लग गई। सुबह 11.00 बजे से रात 9:00 बजे तक भद्रा का समय है। ऐसी मानयता है कि भद्रा-काल में कोई भी शुभ कार्य नहीं किया जाता (नेमीचंद्र शास्त्री, भारतीय ज्योतिष, पृष्ठ. 124)। भद्रा के पश्चात् ही शुभ मुहूर्त रक्षाबन्धन के लिए कहा गया है, जो 30 अगस्त, 2023 रात 9:30 बजे से लेकर 31 अगस्त, 2023 सुबह 7:00 बजे तक माना गया है|

अब प्रश्न यह है कि यदि यही समय रक्षाबन्धन का त्यौहार मनाने का उत्तम समय है, तो क्या भारत में लोग रात को अपने घर से राखी का पर्व मनाने निकलेंगे और अगले दिन सुबह 7:00 बजे तक ही मनाएंगे? इसी उधेड़-बुन में सभी लोग एक दूसरे को फोन करने लगे, एक दूसरे से बात करने लगे, यह एक चर्चा का विषय बन गया कि राखी इस साल कब बाँधे 30 अगस्त को या 31 अगस्त को? फिर सब ने सोचा कि ऐसा करते हैं कि जिस दिन स्कूल के बच्चों की छुट्टी होगी, समझ लेंगे उस दिन ही राखी है। तभी स्कूल से भी चिट्ठी (notice) आ गई कि 30 अगस्त को स्कूल बंद रहेंगे…रक्षाबन्धन के पर्व के उपलक्ष में। फिर भी मन को यह बात समझ ना आई कि हम तो मन में 31 अगस्त फाइनल करके घूम रहे थे…यह 30 अगस्त कहाँ से आ गया। अब रात को कैसे राखी मनाऐ, भले ही छुट्टी स्कूल वालों ने 30 अगस्त को दे दी है?

फिर और चर्चा की गई, आपस में फोन किये गये, संदेश भेजे गये, सोशल मीडिया पर डाला गया, गूगल से पूछा गया। सब ने अपने-अपने तरह से इस बात का जवाब देना शुरू कर दिया। किसी ने कहा हम 30 अगस्त को मनाएंगे, किसी ने कहा हम 31 अगस्त को मनाएंगे। पहली बार ऐसा हुआ कि इस विषय पर चर्चा अखबार वालों ने भी की। अपनी एक रिपोर्ट के ज़रिए, जिसमें उन्होंने दिल्ली के बड़े-बड़े मंदिरों के पुजारियों से इस बात को रखा तो उन्होंने कहा कि “राखी का पर्व ऐसा है जिसमें कोई खास विधि-विधान से पूजा नहीं कही गई है, तो इसीलिए दोनों दिन ही शुभ हैं….आप दोनों दिन कर सकते हैं लेकिन हम तो अपने देवी-देवताओं को 30 अगस्त को ही राखी बाँध देंगे”।

यह पढ़कर फिर मन में आया कि क्या राखी 30 अगस्त को करें कि 31 अगस्त को करें? पर फिर सबने अपने-अपने तरह से राखी बाँधने के समय को लेकर विचार-विमर्श प्रारम्भ कर दिया, और अपने विचार के अनुसार तिथि को स्पष्ट करने लगे। मेरी माता जी ने अपने किसी जानने वाले से पूछा कि “आप पंजाब में राखी कब मना रहे हैं?”, तो उन्होंने कहा कि “हम तो 29 अगस्त को शाम को ही मना रहे हैं”। अब यह बड़ी विचित्र बात थी कि 30 और 31 के झमेले में यह 29 कहाँ से आ गया? हालकि बाद में मुझे मालूम पड़ा कि वो अपने राखी पर आधारित किसी ओनलाइन कार्यक्रम की बात कर रहे थे। इसी बीच मेरे घर में काम करने वाली आया बोली कि “ऐसा है दीदी मैं हो सकता है 30 अगस्त की छुट्टी करूं हो सकता है 31 अगस्त की छुट्टी करूं पर समझ नहीं आ रहा किस दिन राखी बाँधेगें?” फिर 30 अगस्त को अचानक से वह आ खड़ी हुई तो मैंने पूछा “तुमने तो छुट्टी करनी थी कैसे आ गई राखी कब बाँधोगी?” तो कहने लगी “हम तो 31 अगस्त को ही रक्षाबन्धन मनाएगें क्योंकि किसी ने बताया है 30 अगस्त को सूर्य ग्रहण है”।

राखी का पर्व ऐसा होता है कि भाई, बहन के घर जाये या बहन, भाई के। वास्ताव में सब को एक दूसरे के घर जाना होता है, और आगे से आगे जाना होता है तो क्या ऐसी दशा में इस तरह से दो-दो दिन यदि त्यौहार होने लगे तो क्या समाज की व्यवस्था अस्त-व्यस्त नहीं हो जाएगी? पर मुझे यह नहीं समझ आता ऐसी उलझन राखी-पर्व को लेकर ही क्यों सामने आई? क्या कभी ऐसा सुना है कि दशहरे का समय आज बदल गया है, रावण शाम की जगह सुबह जलाया जाएगा, दिवाली के दिन लक्ष्मी पूजन का शुभ समय अधिकतर शाम को ही होता है तो क्या कभी कहा गया है कि सुबह के समय आज लक्ष्मी पूजन कर लो, क्या कभी ऐसा हुआ है की होली पर कहा जाए कि आज होली खेलने का समय शाम का है तो लोग सुबह की बजाये शाम को होली खेल रहे हैं, क्या कभी ऐसा हुआ है कि कार्तिक मास में आने वाला चौथ का त्यौहार जो कि करवाचौथ के नाम से मनाया जाता है, क्या ऐसा कहा जाता है कि दोनों दिन उपवास रख लो चाँद की चतुर्थी तिथि दोनों दिन ही नज़र आएगी?  

यह तो कुछ भी नहीं जब राखी के विषय में मैं अपने कार्यालय में चर्चा करने लगी तो वहाँ विचार-विमर्श हो रहा था कि राखी का त्यौहार भाई-बहन के नाम से तो बाद में प्रसिद्ध हुआ है, पहले तो पत्नियाँ ही अपने पति को युद्धस्थल में भेजने से पहले उनकी कलाई पर रक्षा-सूत्र बाँधा करती थी। इस विषय को सुदृढ़ करने के लिए इन्द्र और शची का उदाहरण भी मेरे ही सहकर्मी ने दिया।

अब ऐसी चर्चा जब सामने आती है, तो क्या राखी का पर्व इसी सोच-विचार में डूबे हुए मनाऐ…इस साल? मैं समझती हूं की रक्षा-सूत्र बाँधकर केवल ईश्वर से प्रार्थना करते हुए कि ’हमारे समस्त परिजनों की रक्षा स्वयं ईश्वर करे’, ऐसी ही मंगल कामना मैं प्रतिदिन करती हूँ। अब चाहे श्रावण पूर्णिमा का दिन हो चाहे साल का प्रत्येक दिन, ओम्।

Raksha Bandhan 2018: how to tie rakhi know about procedure - रक्षा बंधन  2018: बहनें इस विधि से बांधें अपनी भाई की कलाई पर राखी , पंचांग-पुराण न्यूज
(Source of image : https://www.livehindustan.com/astrology/story-raksha-bandhan-2018-how-to-tie-rakhi-know-about-procedure-2138653.html)

– डा. अपर्णा धीर खण्डेलवालअसिस्टेन्ट प्रोफेसर, इन्स्टिटयूट आफ ऎड्वान्स्ट साइन्सीस, डार्टमोथ, यू.एस.ए.

‘Like-Dislike (पसंद-नापसंद)’ के झमेले में संवाद की पराकाष्ठा

-प्रोफ़ेसर बलराम सिंह एवं डॉ. अपर्णा धीर खण्डेलवाल

प्रोफेसर बलराम सिंह एवं डॉ. अपर्णा धीर खण्डेलवाल के परस्पर संवाद की एक झलक। जिसमें किसी विषय को याद दिलाकर डॉ. अपर्णा ने प्रो. सिंह से वार्तालाप प्रारंभ किया, जिसके उत्तर और प्रतिउत्तर में यह चर्चा साधारण से असाधारण का रूप ले गई –

डॉ. अपर्णा यह आपने पहले भी बताया था… WAVES कांफ्रेंस के बहुत पुराने साल की बात है कि खाने के लिए लोग दौड़ने लगे, उसके बाद आज भी आपने जब एयरलाइन की बात कही तब भी यही बात सामने आ रही थी और अक्सर हम देखते भी हैं कि लोगों का शादी में या कहीं भी बाहर जाकर खाना हमेशा focus बना रहता है

प्रो. सिंह – Good memory!

डॉ. अपर्णा मुझे आधे से ज़्यादा लोग memory के कारण ही पसंद करते हैं । 

प्रो. सिंह – और बाकी के लोग?

डॉ. अपर्णा –   Simple logic है- जिनका मेरी memory से फायदा होता है, वह पसंद करते हैं…जिनका मेरी memory से नुकसान होता है, वह नापसंद करते हैं। 

प्रो. सिंह – लेकिन आधे से ज़्यादा लोग पसंद करने का अर्थ है कि बाक़ी के लोग किसी और कारण से पसंद करते हैं।

ना पसंद वालों की बात नहीं,

एकाउंटिंग की बात नहीं, अमाउंटिंग की बात है।

डॉ. अपर्णा –   आपने complicated कर दिया sir.  मेरा गणित कमज़ोर है।

Tough question है… शायद अब समझ नहीं आएगा, क्या बोलूँ?

प्रो. सिंह – बाक़ी के लोग गणित न आने के कारण पसंद करते होंगे कि ज़्यादा बवाल नहीं करती।

डॉ. अपर्णा –   पता नहीं, ऐसा कभी सोचा भी नहीं.

प्रो. सिंह – किसी को पसंद कोई करता है कुछ कारणों से, उदाहरण –

ज्ञान १५%

भुलक्कड़/सहज  ५५%

पद १८%

परिवार ५%

सूरत ५%

अन्य २%

ऐसे और भी विषय हो सकते है, जैसे संगीत, नृत्य, पकवान, आभूषण, इत्यादि।

डॉ. अपर्णा –   मेरे एक सामान्य से वाक्य पर आपने analytical theory दे दी।

जैसे ‘विज्ञान’ विशेष ज्ञान होता है। ऐसे ही पसंद करने के कारण – कुछ सामान्य कारण है और कुछ विशेष कारण। विशेष कारण व्यक्ति को बाकियों से unique बनाते हैं इसलिए वह ज़्यादा significant role play करते हैं।

प्रो. सिंह – सही!

एक विद्वान् तथा साधारण व्यक्ति में यही भेद होता है। विद्वान् अपने प्रत्येक अवलोकन अथवा प्रेक्षण को किसी रूपरेखा में रखकर उसका दीर्घकालीन विश्लेषण करता है। कभी-कभी रूपरेखा और उसके विश्लेषण की गहराई में गोते लगाने लगता है, और उस गहराई में डूब भी जाता है। ज्ञान चक्षु प्रायः उस डूबने को भी कुछ समझा जाते हैं, जैसे कि प्रबोधन या आत्मबोधन।

डॉ. अपर्णा –  सामान्य सी चर्चा दार्शनिक हो गई, यही विद्वान् और साधारण व्यक्ति के परस्पर वार्तालाप के भेद को दर्शाता है।

प्रो. सिंह – हाहा, अब देखिये:

एक साधारण व्यक्ति इस क्षणिक माया से परे…एक सधे मार्ग पर चलकर हर अवलोकन को अनुभव मात्र मान उसी को अपनी संपत्ति मानकर उसके ऊपर रहकर उसे ही गहराई प्रदान कराता रहता है। उसके डूबने का प्रश्न ही नहीं उठता।

प्रो. सिंह के इस वाक्यांश को सुनकर डॉ. अपर्णा ने मौन धारण कर लिया। उसका कारण यह है की साधारण सा वार्तालाप असाधारण पराकाष्ठा की ओर बढ़ चला था और उसने डॉ. अपर्णा को ‘Like-Dislike’ की कड़ी में Facebook और Insta के ज़माने में सच्चाई के दर्शन करा दिए। उन्हें यह अनुभव हुआ कि अक्सर लोग Facebook और Insta पर ‘Like-React-Comment’ करते हैं बिना यह देखे, समझे, या एहसास किए की पोस्ट करने वाला वास्तव में क्या सांझा करना चाहता है।

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(Source of Image: https://mashable.com/article/facebook-reactions-in-comments )

-प्रोफ़ेसर बलराम सिंह, संस्थापक, HaatNow एवं डॉ. अपर्णा धीर खण्डेलवाल, असिस्टेन्ट प्रोफेसर, इन्स्टिटयूट आफ ऎड्वान्स्ट साइन्सीस, डार्टमोथ, यू.एस.ए.

आईए, समाज को समाज से जोड़ें!

डा. अपर्णा धीर खण्डेलवाल

कभी-कभी जिंदगी के छोटे-छोटे किस्से भी बहुत बड़ी सीख दे जाते हैं और हम कभी उन्हें वैसे महसूस नहीं करते। लेकिन जब सामने हो रहे होते हैं, तब किसी याद के रूप में वह अक्सर हमें भीड़ में भी अकेला कर देते हैं यानी वह हमें उस पल में पिछली जिंदगी के कुछ लमहों की याद दिला जाते हैं।

ऐसा ही एक किस्सा अभी कुछ ही दिन पहले मेरे साथ हुआ। मैं किसी कारणवश अपनी माताजी को लेकर बैंक गई, वहाँ मैंने देखा लंबी कतार थी पासबुक की entry कराने के लिए लेकिन, सामने जो बैंक-employee था वह पहले तो अपनी सीट पर नहीं था, फिर जब आया तब उसने कहा कि ‘इतना वक्त नहीं है हमारे पास कि हम सबकी पासबुक में एंट्रीयाँ करते रहे, आपके लिए मशीन लगा रखी है जाईए अपनी पासबुक उसमें से पूरी करा लीजिए’। तब जो लोग तो उस कतार में पढ़े-लिखे थे, वह तो भागकर अपनी पासबुक को ऑनलाइन मशीन से पूरा कराने लगे परन्तु जो लोग बेचारे कुछ गरीब वर्ग के थे, या ज्यादा शिक्षित नहीं थे, उन्होंने बार-बार उस व्यक्ति से आग्रह किया कि ‘भाईसाहब हमें मशीन नहीं चलानी आती, हम पढ़े-लिखे नहीं हैं, हमें नहीं पता कि पासबुक में मशीन से एंट्री कैसे होगी, कृपया आप ही कर दीजिए’। तो वह बैंक-employee बोला कि अगर ‘मैं इस तरह से सबकी एंट्रियाँ करने लगूंगा, तो कोई और काम नहीं है क्या हमारे पास करने के लिए’। उसका यह जवाब थोड़ा कड़क भी था और थोड़ा संवेदनशीलता से दूर भी था। मैं पीछे खड़ी कतार में देख रही थी, मैंने आगे बढ़कर उन आशिक्षित लोगों की पासबुक में एंट्री करवाई।

India To Reduce Number Of State-Owned Banks From 12 To 5: Report
(Source of Image: https://www.ndtv.com/business/bank-privatisation-government-looking-to-privatise-more-than-half-of-state-owned-banks-report-2265907)

समय बहुमूल्य है, पर पता नहीं क्यों ऐसा मन में आया कि यदि मैं इनकी मदद नहीं करूंगी तो यह आज भी निराशा से ही घर लौटेंगे, क्या पता किसके घर में कैसी ज़रूरत है कि उसे पासबुक की एंट्री देखकर ही अपने खाते का ज्ञान होता हो। तब उस दौरान एकदम से मुझे मेरे स्वर्गीय पिताजी के शब्द ध्यान में आए जो जब भी सरकारी बैंकों में जाते, अक्सर यही बात कहते कि ‘यह मुझे पता नहीं चलता की सरकार ने सरकारी employees जनता की मदद के लिए रखें है या कि जनता को तंग करने के लिए?’ यह उक्ति वो अक्सर कहा करते थे। तब हम इतने छोटे थे कि उनकी बात को या तो हंसी में टाल देते थे या हमेशा यह सोचते थे कि पापा आप क्यों सरकारी लोगों से पंगे लेते हो। पर आज जब हम सूझबूझ रखने लगे हैं, तब ऐसा लगता है कि वास्तव में जीवन ऐसा ही है जो ऊंचे पदों पर हैं वें अक्सर ऐसा ही बर्ताव करते हुए नज़र आते हैं जबकि उन्हें सदा समाज के प्रत्येक नागरिक के प्रति संवेदना रखते हुए सरकारी कार्यवाही को करना चाहिए। [क्योंकि] केवल खानापूर्ति [कर्त्तव्य पूरा] करना ही किसी पद की गरिमा नहीं होती, उसमें संवेदना का भी उतना ही गहरा रिश्ता होता है और यही रिश्ता समाज को समाज से जोड़ता है।

(Source of Image: Dr. Aparna with her Father during 90’s)

– डा. अपर्णा धीर खण्डेलवाल, असिस्टेन्ट प्रोफेसर, इन्स्टिटयूट आफ ऎड्वान्स्ट साइन्सीस, डार्टमोथ, यू.एस.ए.

हरे रंग में छुपी हुई मेरे रिश्तों की नज़दीकियाँ

डा. अपर्णा धीर खण्डेलवाल

रंग हमारे जीवन में उल्लास लाते हैं, यह तो सभी कहते हैं……. 

पर यही रंग, हमें हमारे रिश्तों से भी जोड़ते हैं,

क्या कभी हम ऐसा महसूस कर पाते हैं?

जी हां! मैं बात कर रही हूं अपने जीवन की,

जहाँ मुझे मेरे ही रिश्तों से जोड़ा हरे रंग ने।

जब छोटी थी, सभी रंगों से अनभिज्ञ थी….

क्या मालूम कब, कैसे और कहाँ हरे रंग से दोस्ती हो गई….

दोस्ती भी ऐसी कि वह दिन-प्रतिदिन गहरी ही होती चली गई,

फिर क्या था, मेरी अलमारी में रखी….

मेरी सभी चीजें कपड़ों से लेकर pen-pencil सब हरे ही हरे होते चले गए।

तब घर में सब को लगा कि यह सब शौंक की बात है,

पर उनको shock तो तब लगा…

जब बड़े होते ही, मैनें  अपने कमरे और पर्दों को हरा करवाने के लिए शोर मचा दिया।

तब सब ने समझाया brush-comb तक तो सही था,

अब क्या घर भी हरा रंगवाएगी?

मैनें हँसकर कहा, जी बिल्कुल….!

फिर क्या था, मौका मिलते ही मैनें भाई की शादी में हरे रंग की बतियाँ लगवा दी….

कहीं ना कहीं मन को शांति पड़ गई, आज तो घर हरा ही हरा हो गया।

ऐसे ही कभी मेरे पापा भी, एक बार हरे रंग का coffee mug ले आए…

मैं उसे देखकर काफी खुश हुई…

पर अगले ही दिन देखा कि पापा उसमें चाय पी रहे थे,

तब हैरानी हुई, यह जानकर कि मेरी तरह हरा रंग पापा को भी बेहद पसंद है,

यह देखकर मैं सोचने लगी कि इसीलिए पापा ने कभी मुझे क्यों नहीं रोका,

हरे रंग की चीजों को इकट्ठा करने से। 

तभी एक बार पापा ने बताया कि मेरी दादी को भी हरा रंग बहुत पसंद था

क्योंकि मैनें 4 वर्ष की आयु में ही अपनी दादी को खो दिया था,

तो उनकी यह बात सुनकर, आँखें नम भी हुई और रिश्तों की करीबी भी महसूस हुई।

माँ, मुझे बचपन से ही हरे रंग की चीजों को खरीदने के लिए मना करते हुए….

एक ही बात कहती रहती…’कोई बच्ची नहीं है, जो हर जगह जाकर हरी-हरी चीजें ही उठाती है…

अब बड़ी हो गई है, कोई अकल वाली बात भी किया कर’,

मैं हर समय यह सोचती हूं कि माँ डाँटती ज़रूर है…

पर हरे रंग की चीजें ले भी तो देती हैं,

फिर एक दिन अचानक पता चला कि माँ को भी हरा रंग बेहद पसंद है।

ऐसे ही मैनें देखा कि त्योहारों के दौरान जब भी मेरी बुआ घर आती,

अक्सर हरे रंग के कपड़े पहन कर आती…

चाहे साड़ी हो या सूट हरा रंग किसी ना किसी रूप में होता ज़रूर…

एक बार मौका देखकर, फिर तो मैनें पूछ ही लिया,

मुझे ऐसा क्यों लगता है, आप हर बार एक ही तरह के कपड़े पहन कर आती हैं….

तो उन्होंने फिर बता ही दिया, ’क्या करूँ, हरे रंग के आगे कुछ दूसरा नज़र कभी आता ही नहीं’।

अभी तक थी, मैं सबसे छोटी…

तो लगता था, यह तो पीढ़ी दर पीढ़ी चला आ रहा है, किस्सा… हरे रंग का…

पर मैं क्या जानूँ, भविष्य में अभी और क्या है बाकी?

शादी जिससे हुई… वो हैं बड़े शर्मीले,

कभी कुछ बोले ही नहीं…उनसे सुनने के लिए…

आज तक इंतजार कर रही हूं…शादी के 5 साल होने लगे हैं…

पर उनका भी अंदाज निराला….

मुझसे चुपके से पूछ लिया ‘कौन सा है तुम्हें रंग पसंद’…

यह तो थी मेरे मन की बात…

मैनें भी खिलखिला कर, बोल दिया ‘हरा रंग है सबसे निराला’,

फिर क्या था…शादी की तैयारियों के बीच इनसे पूछती रही…

‘आप कौन से रंग के Dress ले रहे हो’,

पर यह भी हैं, तेज….चुप्पी बांदे बैठे रहे….

फिर एकाएक, हमारी सगाई के function के दौरान,

जब यें उपस्थित हुए, तब धीरे से मेरे कान में बोलें,

’तुम्हारा हरा रंग favorite है ना, इसीलिए सगाई की dress हरी ही ली है…सिर्फ तुम्हारे लिए’,

हरे रंग से ज़ाहिर किए हुए, इनके अपनेपन को…

मैं शायद इसीलिए आज तक नहीं भुला पाई।

मुझे आज भी अच्छे से याद है…वो दिन,

जब पीएचडी खत्म होने के बाद, पापा मुझे नई गाड़ी लेकर देना चाहते…

और मैनें खुशी-खुशी कह दिया मुझे हरे रंग की ’Chevrolet Beat’ ले दो…

तब मेरे भाई ने एकदम से कहा,

‘तू क्या पाकिस्तानी है जो सारा दिन हरा-हरा चिल्लाती रहती है’,

पर देखो, भगवान का करिश्मा….

कि मुझे पता भी नहीं और मेरी विदाई हरे रंग की गाड़ी में ही हुई….

यह तो जब, मैं शादी का album देख रही थी…

तब मुझे पता चला कि मायके का हरा रंग ही मैं ससुराल में लेकर जा रही थी,

शायद इसी को कहते हैं…. परमात्मा की लीला, जो बिन कहे ही, रिश्तों को…किसी न किसी रूप में जोड़ देते हैं।

अब बारी थी…नई पीढ़ी की और यह जानने की…

पीढ़ी दर पीढ़ी चले आ रहे, इस हरे रंग ने क्या अभी आगे और साथ निभाना है….

भाई के बेटे को फूल-पत्तियों में खेलता हुआ,

हरे रंग के खिलौनों के लिए जिद्ध करते हुए देखा…

तो मन खुशी से गुदगुदा उठा…

क्योंकि हरे रंग की यह धारा…

अब चौथी पीढ़ी तक पहुंच चुकी थी….

बिना कुछ कहे ही…हरा रंग परिवार का हिस्सा बन चुका था।

मैनें तो केवल अपनी बुआ से,

हमेशा हरे रंग पहनने के बारे में पूछा था…

पर मेरा भतीजा तो नई पीढ़ी का है…

वह तो सीधा divide and rule policy अपनाता है,

अब हमारे घर में युद्ध इसी बात पर होता है…

कि आपको हरा रंग ज्यादा पसंद है या मुझे…?

अगर आपको पसंद है..तो, यह तय कर लेते हैं…

कि ‘आप ‘dark green’ रखोगे और मुझे ‘light green’ दोगे…!

क्योंकि ‘Green’ मेरा सबसे ज़्यादा favorite है’।

उसकी इन मासूम बातों को सुनकर,

पता नहीं मुझमें कैसे बड़प्पन जाग गया

और यह एहसास होने लगा कि

जैसे बड़े अपना सब कुछ छोटों के लिए छोड़ देते हैं….

वैसे ही, मैनें भी अब यह कहना शुरू कर दिया…

’ बेटे, यदि तुम्हें हरा रंग पसंद है तो

बुआ, आपको पूरा हरा रंग देती है’।

फिर वह मुझसे दोबारा पूछता है…

’आप सच में हरा रंग छोड़ दोगे? आप फिर कौन से colour को like करोगे…?’

उसकी इस मीठी-मीठी बातों से ही…

कई सवाल मन में अक्सर उठते हैं,

क्या यह रंग ही हैं, जो हमें जीवन से जोड़ते हैं…

जब हम पौधों को देखते हैं,

जब हम प्रकृति को देखते हैं

या जब हम करीब से अपने रिश्तों को देखते हैं….॥

डा. अपर्णा धीर खण्डेलवाल

असिस्टेन्ट प्रोफेसर, इन्स्टिटयूट आफ ऎड्वान्स्ट साइन्सीस, डार्टमोथ, यू.एस.ए.

गांव से सैर – लड़ाई की नीति, रणनीति, एवं जीवन की सीख

बलराम सिंह

कहानी मेरी छठी कक्षा के दूसरे सप्ताह की है। मैं करीब 11 साल का था। मेरे गाँव का एक लड़का था, अनिल सिंह, जो कि अपनी बहन कृष्णा सिंह के साथ, सातवीं कक्षा में पढता था। वे हमारे गांव के एक पट्टीदार परिवार से थे, जिसका सैकड़ों साल पुराना कुछ हद तक एक प्रतिद्वंद्विता का इतिहास रहा है। दरअसल, हमारे परिवार कुछ काल पहले दो भाइयों की एक शाखा से थे, शायद 20-30 पीढ़ी पहले। परिवार में हमारा पक्ष बड़े भाई चोपई सिंह का है, और उनका पक्ष छोटे भाई मोहकम सिंह की ओर से है। हमारे परिवार किसी भी शादी या मौत के कार्यक्रम में परिवार की भाँति शामिल तो होते हैं, लेकिन एक-दूसरे के घर में प्रायः खाना नहीं खाया करते। यह व्यवहार यह दर्शाता है कि पारिवारिक सम्बन्ध होने के वावजूद आपसी मतभेद व तनाव बना रहता है, जो कि कभी कभी वैमनस्य में भी बदल जाता है

वैसे भी, अनिल ने मुझे अपने गाँव से लगभग 2-3 मील दूर, पास के गाँव, मायंग के एक लड़के, परबल (संभवतः प्रबल का अपभ्रंस होगा) सिंह ,जो कि शरीर से कुछ भारी-भरकम था,  से मिलवाकर परिचय करवाया था। परबल के चचेरे भाई नरेंद्र सिंह भी 7वीं कक्षा में थे। उनके चाचा श्री शीतला सिंह मेरे अंग्रेजी के शिक्षक थे। हमारे गांव कोरौं (कोरो, अब कुरुॐ) में 7 ठाकुर परिवारों की तुलना में उनका गांव 90 ठाकुर परिवारों (कई गुंडों और गुंडों के लिए भी) के लिए जाना जाता था। मुझे स्कूल के स्लाइड उपकरण के पास परबल से मिलवाया जाना याद है। परबल थोड़ा गुस्सैल लग रहा था, लेकिन मुझे उच्च ग्रेड के किसी व्यक्ति से मिल कर खुशी हुई थी।

Bal Ram Singh at age 14

उन दिनों स्कूल शाम को ४ बजे बन्द होता था। अगले सप्ताह जो कि मेरा दूसरा सप्ताह था,  मैं अन्य सहपाठियों के साथ स्कूल बन्द होने के बाद घर जा रहा था। हम अभी स्कूल की सीमा के बाहर निकले ही थे, जब मैंने देखा कि एक लड़का अनिल का पूरी गति से पीछा कर रहा था। वह लड़का मुश्किल से अनिल तक पहुँच गया, और पीछे से उसके सिर के नीचे गर्दन पर जोर से थप्पड़ मारा। इस पर मुझमें तिरस्कार की स्वाभाविक प्रतिक्रिया हुई, और हमारे गाँव में एक तरह से प्रतिद्वंद्वी परिवारों से आने के बावजूद भी मुझे बड़ा ही बुरा लगा, और मैंने दूसरे लड़के से पूछा कि उसने उसे क्यों मारा? लड़के ने मुझे तिरस्कृत नज़र से देखा और अवधी में कहा, ’जातू…’, मतलब चले जाओ, लेकिन यह शब्द एक महिला को सम्बोधित करता है। एक लड़के के लिए लड़की की तरह सम्बोधित होना उन दिनों एक बड़ी गाली मानी जाती थी, और शायद अब भी है! मेरी भी प्रतिक्रिया त्वरित हुई, और मैंने भी उस लड़के को बाएं और दाएं थप्पड़ मारा, जो रोता हुआ और शोर कर रहा था कि वह इसका बदला लेगा। मैं हँसा और घर चला गया।

अगली सुबह कहानी अलग थी, और घटनाक्रम ने एक बदसूरत मोड़ ले लिया। जब मैं अपनी कक्षा में फर्श पर बैठा था (हम फर्श पर एक जूट की चटाई पर बैठते थे जिसे टाट कहा जाता था), कक्षा शुरू होने से पहले परबल सिंह आ गया। उसने मेरे स्कूल बैग को अपने पैर से लात मारी (भारत में यह कुछ बहुत ही अपमानजनक बात मानी जाती है)। मैं खड़ा होकर पूछने लगा कि वह ऐसा क्यों कर रहा है? उसने आरोप लगाया कि मैंने एक दिन पहले उसके दोस्त को पीटा था। इससे मुझे आभास हो गया कि पिछले दिन अनिल सिंह का पीछा करने वाला लड़का वास्तव में उसके कहने पर ऐसा कर रहा था। परबल वास्तव में परिसर में एक जबरदस्त धमकाने वाला लड़का माना जाता था, और वह निश्चित रूप से ऐसा करने में सक्षम भी था।

Source of Image : https://www.istockphoto.com/search/2/image?mediatype=illustration&phrase=children+fighting

मैंने उससे बहुत ही मुखर तरीके से कहा कि अगर वह लड़ाई करना चाहता है तो वह मुझसे स्कूल के बाद मिलें! हैरानी की बात यह है कि वह इसके लिए आसानी से तैयार भी हो गया, जो कि यह सिद्ध कर दिया कि वह अपने क्षमता पर पूरी तरह आश्वस्त था और अपने लड़ाई के विचारों पर दृढ़ प्रतिज्ञ था। इस प्रकार, बिना किसी स्पष्ट सहमति के हमने अपनी लड़ाई के लिए शाम 4 बजे का समय निर्धारित कर दिया। मैंने कक्षा में कुछ फुसफुसाते हुए सुना कि उस दिन मायंग और कोरॐ के ठाकुरों के बीच लड़ाई होने वाली थी। लंच ब्रेक के समय खबर और फैल गई। कोरॐ  प्राइमरी स्कूल से छठी कक्षा में आने वाले छात्रों की संख्या 15 थी, जबकि मायंग के छात्रों की संख्या लगभग 100 थी। और, परबल सातवीं कक्षा में एक दर्जा ऊपर भी था, मतलब उम्र और कद में भी बड़ा था। इसके अलावा, अनिल से किसी मदद की कोई उम्मीद नहीं थी। मुझे स्थिति से निपटने के लिए स्वयं ही साहसी, तत्पर, रणनीतिक और सामरिक कुशलता दिखानी थी, और ये सब ११ वर्ष की उम्र में।

आगे की कहानी क्रमशः ….

Prof. Bal Ram Singh, Founder, HaatNow

गांव का स्नेह-सत्कार

-डॉ. आशा लता पाण्डेय

गाँव, गांव की माटी और माटी की सोंधी गंध….सब मेरी आंखों में, सांसों में रची-बसी है। गांव से बचपन की बहुत सी यादें जुड़ी हैं। बचपन में बहुत बार गांव में आना-जाना होता था। चाचा-चाची, काका-काकी, दादा-दादी वहां रहते थे। शहर से गांव पहुंचने पर बड़ा ही स्नेहमय स्वागत होता था। तब यातायात के इतने साधन नहीं थे तो कभी बैलगाड़ी में, कभी मियांना (पालकी) में चढ़कर जाते थे। करीब आधा घंटा लगता था सड़क से गांव तक पहुंचने में।

जैसे ही हम लोग पहुंचते  थे, पीतल की चमचमाती परात में ठंडे -ठंडे पानी में पैर धोया जाता था। इतना आनंद आता था कि सारी थकान उतर जाती थी और फिर नाउन, काकी बोलते थे हम उनको, वह आकर हम लोगों का पैर दबाती थीं। ठंडे-ठंडे पानी में पूरी थकान उतार के हम सभी तरोताजा हो जाते थे।

खाने के समय हम सभी भाई-बहन चाचा के बच्चे और हम लोग जब खाने बैठते थे तो हमारी काकी हम लोगों की थाली में अपने बच्चों की थाली से ज्यादा घी डालती थीं। यह बात हमें आज तक याद है। हम लोगों के आने की खबर मिलते ही गाँव के सभी लोग मिलने आते थे परोसी दादा (पड़ोस वाले दादा), पडा़इन काकी (पाण्डे काका की धर्म-पत्नी), बरा काका (इस नाम की भी बड़ी रोचक कहानी है कि जब थोड़ा हकलाने वाले शिवपूजन ने अपनी शादी में खाने पर दुबारा से बड़े माँगे तब से पूरा गांव उन्हें ‘बरा’ के नाम से ही जानता है और उनकी पत्नी बन गई बराइन काकी -इन प्रत्यय लगाकर डाक्टराइन, वकीलाइन, मास्टराइन आदि सम्बोधन सुविधानुसार बना लिये जाते थे) और भी इसी तरह के बहुत से लोग जो सम्बन्धी न होते हुए भी सम्बन्धियों जैसे सम्बोधन से बुलाये जाते थे।

ऐसा प्यार आज की दुनिया में कहां? आज तो ये हो गया है कि मैं, मेरा पति और मेरे बच्चे….यहीं तक दुनिया सीमित होकर रह गई है। गांव का जुड़ाव और गांव का स्नेहभरा वातावरण कहीं भी नहीं देखने को नहीं मिलता। आज के तनाव वाले इस युग में यदि हम गाँवों से इस तरह का प्यार, आदर सीख-सिखा सकें तो बहुत सी समस्याऐं हल हो सकती हैं।

तो यह रही मेरी कुछ यादें मेरे गांव की और भी बहुत-सी मीठी यादें हैं…जो हम आपसे समय-समय पर साझा करते रहेंगे तब तक के लिए आप सबको मेरी राम राम।

डॉ. आशा लता पाण्डेय, संस्कृत-शिक्षिका (अवकाश प्राप्त), दिल्ली पब्लिक स्कूल, दिल्ली

शहर की सड़कों से गांव के गलियारों तक

डा. अपर्णा धीर खण्डेलवाल

अक्सर शहरवासियों का मानना है की गांव में रखा क्या है? और ऐसा होता भी है जब हम शहर की चकाचौंध और अपने शहरी लिबास में रहते हैं तो हम गांव की उन छोटी-छोटी बातों को अनदेखा कर देते हैं। ऐसा ही कुछ मेरे साथ भी हुआ जब मैं आज से लगभग 4 वर्ष पहले उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर ज़िले में बसे ’कुरूऊँ गाँव’ गई।

वहां जाकर मैं समझ पाई कि वास्तव में प्राकृतिक रूप में मिला हमें यह जीवन अत्यंत सरल है परंतु हम शहरवासियों ने उसे कॉम्प्लिकेटिड बना दिया है। क्यों नहीं हम सहजता से जीवन जी पाते? क्यों नहीं हम जो खाते हैं उसे सरलता से ग्रहण कर पाते? ऐसे ही कुछ बातों को जब मैंने गांव में कुछ दिन रहते हुए करीब से जाना तो समझ आया कि ग्रामीण शैली ही वास्तव में बहुत सहज और साधारण है।

सौभाग्यवश मुझे तीन-चार दिन ’कुरूऊँ गाँव’ में रुकने का अवसर प्राप्त हुआ। वहाँ मेरे ही कार्यालय के निदेशक का ग्रामीण गृह है। यह गांव की मेरी सर्वप्रथम विज़िट थी।

उस अवसर के दौरान मुझे कभी यह महसूस नहीं हुआ कि मैं उनके परिवार का हिस्सा नहीं हूं क्योंकि बच्चे मुझे ‘बुआ’ बुलाने लगे और बड़े मुझे ‘बेटी’। यूं तो हम शहर में भी अपने घर आए मेहमान को सम्मान देते हैं परंतु उन्हें पारिवारिक हिस्से के रूप में समझ कर बातचीत करना यह शहर में कम देखने को मिलता है। वहां रहते हुए परिवार के बच्चों के साथ में इतना घुल मिल गई कि उन तीन-चार दिनों में बच्चे मुझे एक दिन अपने खेत दिखाने ले गए| जैसे ही हमने घर से बाहर कदम रखा, वहां से ही उनका खेत शुरू हो गया और मैं आराम से जैसे हम शहर में गर्दन ऊंची करके चलते हैं…उसी तरह चलने लगी। तभी मेरे साथ चल रहे 3 साल के बच्चे जोकि मेरे निदेशक के ही भाई का पोता है, उस तेज बल सिंह ने एकदम से मेरा कुर्ता खींचा और मुझे झुककर देखने को कहा ” बुआ! आप आराम से चलिए, यहां हमने मटर बॉय हुई है”। मैं देखकर दंग रह गई कि अभी तो भूमि से अंकुर भी बाहर नहीं आए हैं…भला इस 3 साल के बच्चे को इतना ज्ञान कैसे? क्या यह घर में हो रही बातों को सुनता है? क्या यह खेत में जाकर काम करता है? यह कैसे जान पाया कि जिस स्तह पर मुझे केवल मिट्टी दिखी वहाँ  मटर उगने वाली हैं।

और इस तरह कुछ दूर तक गांव के उन खेतों को घुमाते हुए और उगाए हुए अन्न के विषय में जानकारी देते हुए छोटे-छोटे कदमों से चलते हुए….. घर के बच्चे मुझे गांव के सरल जीवन का ज्ञान दे गए।

डा. अपर्णा धीर खण्डेलवाल, असिस्टेन्ट प्रोफेसर, इन्स्टिटयूट आफ ऎड्वान्स्ट साइन्सीस, डार्टमोथ, यू.एस.ए.