हरे रंग में छुपी हुई मेरे रिश्तों की नज़दीकियाँ

डा. अपर्णा धीर खण्डेलवाल

रंग हमारे जीवन में उल्लास लाते हैं, यह तो सभी कहते हैं……. 

पर यही रंग, हमें हमारे रिश्तों से भी जोड़ते हैं,

क्या कभी हम ऐसा महसूस कर पाते हैं?

जी हां! मैं बात कर रही हूं अपने जीवन की,

जहाँ मुझे मेरे ही रिश्तों से जोड़ा हरे रंग ने।

जब छोटी थी, सभी रंगों से अनभिज्ञ थी….

क्या मालूम कब, कैसे और कहाँ हरे रंग से दोस्ती हो गई….

दोस्ती भी ऐसी कि वह दिन-प्रतिदिन गहरी ही होती चली गई,

फिर क्या था, मेरी अलमारी में रखी….

मेरी सभी चीजें कपड़ों से लेकर pen-pencil सब हरे ही हरे होते चले गए।

तब घर में सब को लगा कि यह सब शौंक की बात है,

पर उनको shock तो तब लगा…

जब बड़े होते ही, मैनें  अपने कमरे और पर्दों को हरा करवाने के लिए शोर मचा दिया।

तब सब ने समझाया brush-comb तक तो सही था,

अब क्या घर भी हरा रंगवाएगी?

मैनें हँसकर कहा, जी बिल्कुल….!

फिर क्या था, मौका मिलते ही मैनें भाई की शादी में हरे रंग की बतियाँ लगवा दी….

कहीं ना कहीं मन को शांति पड़ गई, आज तो घर हरा ही हरा हो गया।

ऐसे ही कभी मेरे पापा भी, एक बार हरे रंग का coffee mug ले आए…

मैं उसे देखकर काफी खुश हुई…

पर अगले ही दिन देखा कि पापा उसमें चाय पी रहे थे,

तब हैरानी हुई, यह जानकर कि मेरी तरह हरा रंग पापा को भी बेहद पसंद है,

यह देखकर मैं सोचने लगी कि इसीलिए पापा ने कभी मुझे क्यों नहीं रोका,

हरे रंग की चीजों को इकट्ठा करने से। 

तभी एक बार पापा ने बताया कि मेरी दादी को भी हरा रंग बहुत पसंद था

क्योंकि मैनें 4 वर्ष की आयु में ही अपनी दादी को खो दिया था,

तो उनकी यह बात सुनकर, आँखें नम भी हुई और रिश्तों की करीबी भी महसूस हुई।

माँ, मुझे बचपन से ही हरे रंग की चीजों को खरीदने के लिए मना करते हुए….

एक ही बात कहती रहती…’कोई बच्ची नहीं है, जो हर जगह जाकर हरी-हरी चीजें ही उठाती है…

अब बड़ी हो गई है, कोई अकल वाली बात भी किया कर’,

मैं हर समय यह सोचती हूं कि माँ डाँटती ज़रूर है…

पर हरे रंग की चीजें ले भी तो देती हैं,

फिर एक दिन अचानक पता चला कि माँ को भी हरा रंग बेहद पसंद है।

ऐसे ही मैनें देखा कि त्योहारों के दौरान जब भी मेरी बुआ घर आती,

अक्सर हरे रंग के कपड़े पहन कर आती…

चाहे साड़ी हो या सूट हरा रंग किसी ना किसी रूप में होता ज़रूर…

एक बार मौका देखकर, फिर तो मैनें पूछ ही लिया,

मुझे ऐसा क्यों लगता है, आप हर बार एक ही तरह के कपड़े पहन कर आती हैं….

तो उन्होंने फिर बता ही दिया, ’क्या करूँ, हरे रंग के आगे कुछ दूसरा नज़र कभी आता ही नहीं’।

अभी तक थी, मैं सबसे छोटी…

तो लगता था, यह तो पीढ़ी दर पीढ़ी चला आ रहा है, किस्सा… हरे रंग का…

पर मैं क्या जानूँ, भविष्य में अभी और क्या है बाकी?

शादी जिससे हुई… वो हैं बड़े शर्मीले,

कभी कुछ बोले ही नहीं…उनसे सुनने के लिए…

आज तक इंतजार कर रही हूं…शादी के 5 साल होने लगे हैं…

पर उनका भी अंदाज निराला….

मुझसे चुपके से पूछ लिया ‘कौन सा है तुम्हें रंग पसंद’…

यह तो थी मेरे मन की बात…

मैनें भी खिलखिला कर, बोल दिया ‘हरा रंग है सबसे निराला’,

फिर क्या था…शादी की तैयारियों के बीच इनसे पूछती रही…

‘आप कौन से रंग के Dress ले रहे हो’,

पर यह भी हैं, तेज….चुप्पी बांदे बैठे रहे….

फिर एकाएक, हमारी सगाई के function के दौरान,

जब यें उपस्थित हुए, तब धीरे से मेरे कान में बोलें,

’तुम्हारा हरा रंग favorite है ना, इसीलिए सगाई की dress हरी ही ली है…सिर्फ तुम्हारे लिए’,

हरे रंग से ज़ाहिर किए हुए, इनके अपनेपन को…

मैं शायद इसीलिए आज तक नहीं भुला पाई।

मुझे आज भी अच्छे से याद है…वो दिन,

जब पीएचडी खत्म होने के बाद, पापा मुझे नई गाड़ी लेकर देना चाहते…

और मैनें खुशी-खुशी कह दिया मुझे हरे रंग की ’Chevrolet Beat’ ले दो…

तब मेरे भाई ने एकदम से कहा,

‘तू क्या पाकिस्तानी है जो सारा दिन हरा-हरा चिल्लाती रहती है’,

पर देखो, भगवान का करिश्मा….

कि मुझे पता भी नहीं और मेरी विदाई हरे रंग की गाड़ी में ही हुई….

यह तो जब, मैं शादी का album देख रही थी…

तब मुझे पता चला कि मायके का हरा रंग ही मैं ससुराल में लेकर जा रही थी,

शायद इसी को कहते हैं…. परमात्मा की लीला, जो बिन कहे ही, रिश्तों को…किसी न किसी रूप में जोड़ देते हैं।

अब बारी थी…नई पीढ़ी की और यह जानने की…

पीढ़ी दर पीढ़ी चले आ रहे, इस हरे रंग ने क्या अभी आगे और साथ निभाना है….

भाई के बेटे को फूल-पत्तियों में खेलता हुआ,

हरे रंग के खिलौनों के लिए जिद्ध करते हुए देखा…

तो मन खुशी से गुदगुदा उठा…

क्योंकि हरे रंग की यह धारा…

अब चौथी पीढ़ी तक पहुंच चुकी थी….

बिना कुछ कहे ही…हरा रंग परिवार का हिस्सा बन चुका था।

मैनें तो केवल अपनी बुआ से,

हमेशा हरे रंग पहनने के बारे में पूछा था…

पर मेरा भतीजा तो नई पीढ़ी का है…

वह तो सीधा divide and rule policy अपनाता है,

अब हमारे घर में युद्ध इसी बात पर होता है…

कि आपको हरा रंग ज्यादा पसंद है या मुझे…?

अगर आपको पसंद है..तो, यह तय कर लेते हैं…

कि ‘आप ‘dark green’ रखोगे और मुझे ‘light green’ दोगे…!

क्योंकि ‘Green’ मेरा सबसे ज़्यादा favorite है’।

उसकी इन मासूम बातों को सुनकर,

पता नहीं मुझमें कैसे बड़प्पन जाग गया

और यह एहसास होने लगा कि

जैसे बड़े अपना सब कुछ छोटों के लिए छोड़ देते हैं….

वैसे ही, मैनें भी अब यह कहना शुरू कर दिया…

’ बेटे, यदि तुम्हें हरा रंग पसंद है तो

बुआ, आपको पूरा हरा रंग देती है’।

फिर वह मुझसे दोबारा पूछता है…

’आप सच में हरा रंग छोड़ दोगे? आप फिर कौन से colour को like करोगे…?’

उसकी इस मीठी-मीठी बातों से ही…

कई सवाल मन में अक्सर उठते हैं,

क्या यह रंग ही हैं, जो हमें जीवन से जोड़ते हैं…

जब हम पौधों को देखते हैं,

जब हम प्रकृति को देखते हैं

या जब हम करीब से अपने रिश्तों को देखते हैं….॥

डा. अपर्णा धीर खण्डेलवाल

असिस्टेन्ट प्रोफेसर, इन्स्टिटयूट आफ ऎड्वान्स्ट साइन्सीस, डार्टमोथ, यू.एस.ए.

गांव का स्नेह-सत्कार

-डॉ. आशा लता पाण्डेय

गाँव, गांव की माटी और माटी की सोंधी गंध….सब मेरी आंखों में, सांसों में रची-बसी है। गांव से बचपन की बहुत सी यादें जुड़ी हैं। बचपन में बहुत बार गांव में आना-जाना होता था। चाचा-चाची, काका-काकी, दादा-दादी वहां रहते थे। शहर से गांव पहुंचने पर बड़ा ही स्नेहमय स्वागत होता था। तब यातायात के इतने साधन नहीं थे तो कभी बैलगाड़ी में, कभी मियांना (पालकी) में चढ़कर जाते थे। करीब आधा घंटा लगता था सड़क से गांव तक पहुंचने में।

जैसे ही हम लोग पहुंचते  थे, पीतल की चमचमाती परात में ठंडे -ठंडे पानी में पैर धोया जाता था। इतना आनंद आता था कि सारी थकान उतर जाती थी और फिर नाउन, काकी बोलते थे हम उनको, वह आकर हम लोगों का पैर दबाती थीं। ठंडे-ठंडे पानी में पूरी थकान उतार के हम सभी तरोताजा हो जाते थे।

खाने के समय हम सभी भाई-बहन चाचा के बच्चे और हम लोग जब खाने बैठते थे तो हमारी काकी हम लोगों की थाली में अपने बच्चों की थाली से ज्यादा घी डालती थीं। यह बात हमें आज तक याद है। हम लोगों के आने की खबर मिलते ही गाँव के सभी लोग मिलने आते थे परोसी दादा (पड़ोस वाले दादा), पडा़इन काकी (पाण्डे काका की धर्म-पत्नी), बरा काका (इस नाम की भी बड़ी रोचक कहानी है कि जब थोड़ा हकलाने वाले शिवपूजन ने अपनी शादी में खाने पर दुबारा से बड़े माँगे तब से पूरा गांव उन्हें ‘बरा’ के नाम से ही जानता है और उनकी पत्नी बन गई बराइन काकी -इन प्रत्यय लगाकर डाक्टराइन, वकीलाइन, मास्टराइन आदि सम्बोधन सुविधानुसार बना लिये जाते थे) और भी इसी तरह के बहुत से लोग जो सम्बन्धी न होते हुए भी सम्बन्धियों जैसे सम्बोधन से बुलाये जाते थे।

ऐसा प्यार आज की दुनिया में कहां? आज तो ये हो गया है कि मैं, मेरा पति और मेरे बच्चे….यहीं तक दुनिया सीमित होकर रह गई है। गांव का जुड़ाव और गांव का स्नेहभरा वातावरण कहीं भी नहीं देखने को नहीं मिलता। आज के तनाव वाले इस युग में यदि हम गाँवों से इस तरह का प्यार, आदर सीख-सिखा सकें तो बहुत सी समस्याऐं हल हो सकती हैं।

तो यह रही मेरी कुछ यादें मेरे गांव की और भी बहुत-सी मीठी यादें हैं…जो हम आपसे समय-समय पर साझा करते रहेंगे तब तक के लिए आप सबको मेरी राम राम।

डॉ. आशा लता पाण्डेय, संस्कृत-शिक्षिका (अवकाश प्राप्त), दिल्ली पब्लिक स्कूल, दिल्ली

शहर की सड़कों से गांव के गलियारों तक

डा. अपर्णा धीर खण्डेलवाल

अक्सर शहरवासियों का मानना है की गांव में रखा क्या है? और ऐसा होता भी है जब हम शहर की चकाचौंध और अपने शहरी लिबास में रहते हैं तो हम गांव की उन छोटी-छोटी बातों को अनदेखा कर देते हैं। ऐसा ही कुछ मेरे साथ भी हुआ जब मैं आज से लगभग 4 वर्ष पहले उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर ज़िले में बसे ’कुरूऊँ गाँव’ गई।

वहां जाकर मैं समझ पाई कि वास्तव में प्राकृतिक रूप में मिला हमें यह जीवन अत्यंत सरल है परंतु हम शहरवासियों ने उसे कॉम्प्लिकेटिड बना दिया है। क्यों नहीं हम सहजता से जीवन जी पाते? क्यों नहीं हम जो खाते हैं उसे सरलता से ग्रहण कर पाते? ऐसे ही कुछ बातों को जब मैंने गांव में कुछ दिन रहते हुए करीब से जाना तो समझ आया कि ग्रामीण शैली ही वास्तव में बहुत सहज और साधारण है।

सौभाग्यवश मुझे तीन-चार दिन ’कुरूऊँ गाँव’ में रुकने का अवसर प्राप्त हुआ। वहाँ मेरे ही कार्यालय के निदेशक का ग्रामीण गृह है। यह गांव की मेरी सर्वप्रथम विज़िट थी।

उस अवसर के दौरान मुझे कभी यह महसूस नहीं हुआ कि मैं उनके परिवार का हिस्सा नहीं हूं क्योंकि बच्चे मुझे ‘बुआ’ बुलाने लगे और बड़े मुझे ‘बेटी’। यूं तो हम शहर में भी अपने घर आए मेहमान को सम्मान देते हैं परंतु उन्हें पारिवारिक हिस्से के रूप में समझ कर बातचीत करना यह शहर में कम देखने को मिलता है। वहां रहते हुए परिवार के बच्चों के साथ में इतना घुल मिल गई कि उन तीन-चार दिनों में बच्चे मुझे एक दिन अपने खेत दिखाने ले गए| जैसे ही हमने घर से बाहर कदम रखा, वहां से ही उनका खेत शुरू हो गया और मैं आराम से जैसे हम शहर में गर्दन ऊंची करके चलते हैं…उसी तरह चलने लगी। तभी मेरे साथ चल रहे 3 साल के बच्चे जोकि मेरे निदेशक के ही भाई का पोता है, उस तेज बल सिंह ने एकदम से मेरा कुर्ता खींचा और मुझे झुककर देखने को कहा ” बुआ! आप आराम से चलिए, यहां हमने मटर बॉय हुई है”। मैं देखकर दंग रह गई कि अभी तो भूमि से अंकुर भी बाहर नहीं आए हैं…भला इस 3 साल के बच्चे को इतना ज्ञान कैसे? क्या यह घर में हो रही बातों को सुनता है? क्या यह खेत में जाकर काम करता है? यह कैसे जान पाया कि जिस स्तह पर मुझे केवल मिट्टी दिखी वहाँ  मटर उगने वाली हैं।

और इस तरह कुछ दूर तक गांव के उन खेतों को घुमाते हुए और उगाए हुए अन्न के विषय में जानकारी देते हुए छोटे-छोटे कदमों से चलते हुए….. घर के बच्चे मुझे गांव के सरल जीवन का ज्ञान दे गए।

डा. अपर्णा धीर खण्डेलवाल, असिस्टेन्ट प्रोफेसर, इन्स्टिटयूट आफ ऎड्वान्स्ट साइन्सीस, डार्टमोथ, यू.एस.ए.

ग्रामीण-समाज की व्यवस्था में रिश्तों की गहराई की झलक

डा. अपर्णा धीर खण्डेलवाल

शहरवासियों की दृष्टि में गाँव एवम् ग्रामीणवासी सदैव ही सादा जीवन, सरल बोली, साधारण वेशभूषा, तथा सात्त्विक भोजन की छाप छोडे़ हुए है। मन में ऎसी ही छवि बिठाऐ हुए संयोगवश आज से लगभग चार वर्ष पहले मुझे भी एक गाँव में जाने का अवसर प्राप्त हुआ। मैं चर्चा कर रही हूँ उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर ज़िले में बसे ’कुरूऊँ गाँव’ की। यूँ तो मैं मुख्य रूप से इस गाँव में स्थित ’कुरूऊँ विद्यालय’ के विद्यार्थियों को ‘सोशल मीडिया का शिक्षा-क्षेत्र में योगदान’’ विषय पर आयोजित कार्यशाला में शिक्षित करने हेतु गयी थी परन्तु वहाँ जाकर मैनें ग्रामीण-परिवेश को बढ़े करीब से जाना।

गाँव में रहने वाले परिवारों में आपसी सामाञ्जस्य को मैनें वहाँ कुछ दिन बिताकर महसूस किया। रिश्तों की गहराई, अपनापन तथा परस्पर सम्मान की दृष्टि के लिये सदैव ही भारतीय संस्कृति को विश्वपटल पर याद किया जाता है। इन्हीं सबकी झलक से मैं ’कुरूऊँ गाँव’ में रूबरू हुई। परिवार में साथ रहते हुए एक-दूसरे के बच्चों का लालन-पालन अपने बच्चे की तरह करना, यह गाँव में सामान्यत: दृश्यमान है। गाँव के प्रत्येक जन को काका, अम्मा, भाभी, दीदी, भैया, मोसी आदि कहकर सम्बोधित करना गाँव की अपनी विशेषता है जिसका शहरों में अधिक प्रचलन नहीं है। इस तरह सम्बोधन करने से आपसी मनमुटाव कम ही होता है, परस्पर स्नेह की भावना जागृत होती है, अपने परिवार के सदस्यों की तरह ही सारा गाँव नज़र आता है, एवम् लोकाचार से परे किसी प्रकार का विसंगत व्यवहार प्राय: देखने को नहीं मिलता। बड़ों के प्रति श्रद्धापूर्वक पाँव छूने की प्रथा यद्यपि शहरों में लगभग लुप्त होती जा रही है तथापि ग्रामीण-समाज में आज भी इसे अत्यन्त सम्मानीय माना जाता है। शहर आज जितने बड़े होते जा रहे हैं, वहाँ रहने वाले परिवार उतने ही छोटे होते जा रहे हैं परन्तु गाँव में आज भी मुख्यत: संयुक्त परिवार का प्रचलन है। सबकी अच्छाईयों और कमियों को समझकर आपसी सामञ्जस्य और प्रेम के साथ रहना ही ग्रामीण-जीवन की देन है। इन्हीं सब विचारों को समेटे हमारे ग्रामीण-समाज को निश्चित ही भारतीय परम्परा की सुदृढ़ नींव मानना अतिशयोक्ति नहीं होगी।

डा. अपर्णा धीर खण्डेलवाल, असिस्टेन्ट प्रोफेसर, इन्स्टिटयूट आफ ऎड्वान्स्ट साइन्सीस, डार्टमोथ, यू.एस.ए.