गांव से सैर – लड़ाई की नीति, रणनीति, एवं जीवन की सीख

बलराम सिंह

कहानी मेरी छठी कक्षा के दूसरे सप्ताह की है। मैं करीब 11 साल का था। मेरे गाँव का एक लड़का था, अनिल सिंह, जो कि अपनी बहन कृष्णा सिंह के साथ, सातवीं कक्षा में पढता था। वे हमारे गांव के एक पट्टीदार परिवार से थे, जिसका सैकड़ों साल पुराना कुछ हद तक एक प्रतिद्वंद्विता का इतिहास रहा है। दरअसल, हमारे परिवार कुछ काल पहले दो भाइयों की एक शाखा से थे, शायद 20-30 पीढ़ी पहले। परिवार में हमारा पक्ष बड़े भाई चोपई सिंह का है, और उनका पक्ष छोटे भाई मोहकम सिंह की ओर से है। हमारे परिवार किसी भी शादी या मौत के कार्यक्रम में परिवार की भाँति शामिल तो होते हैं, लेकिन एक-दूसरे के घर में प्रायः खाना नहीं खाया करते। यह व्यवहार यह दर्शाता है कि पारिवारिक सम्बन्ध होने के वावजूद आपसी मतभेद व तनाव बना रहता है, जो कि कभी कभी वैमनस्य में भी बदल जाता है

वैसे भी, अनिल ने मुझे अपने गाँव से लगभग 2-3 मील दूर, पास के गाँव, मायंग के एक लड़के, परबल (संभवतः प्रबल का अपभ्रंस होगा) सिंह ,जो कि शरीर से कुछ भारी-भरकम था,  से मिलवाकर परिचय करवाया था। परबल के चचेरे भाई नरेंद्र सिंह भी 7वीं कक्षा में थे। उनके चाचा श्री शीतला सिंह मेरे अंग्रेजी के शिक्षक थे। हमारे गांव कोरौं (कोरो, अब कुरुॐ) में 7 ठाकुर परिवारों की तुलना में उनका गांव 90 ठाकुर परिवारों (कई गुंडों और गुंडों के लिए भी) के लिए जाना जाता था। मुझे स्कूल के स्लाइड उपकरण के पास परबल से मिलवाया जाना याद है। परबल थोड़ा गुस्सैल लग रहा था, लेकिन मुझे उच्च ग्रेड के किसी व्यक्ति से मिल कर खुशी हुई थी।

Bal Ram Singh at age 14

उन दिनों स्कूल शाम को ४ बजे बन्द होता था। अगले सप्ताह जो कि मेरा दूसरा सप्ताह था,  मैं अन्य सहपाठियों के साथ स्कूल बन्द होने के बाद घर जा रहा था। हम अभी स्कूल की सीमा के बाहर निकले ही थे, जब मैंने देखा कि एक लड़का अनिल का पूरी गति से पीछा कर रहा था। वह लड़का मुश्किल से अनिल तक पहुँच गया, और पीछे से उसके सिर के नीचे गर्दन पर जोर से थप्पड़ मारा। इस पर मुझमें तिरस्कार की स्वाभाविक प्रतिक्रिया हुई, और हमारे गाँव में एक तरह से प्रतिद्वंद्वी परिवारों से आने के बावजूद भी मुझे बड़ा ही बुरा लगा, और मैंने दूसरे लड़के से पूछा कि उसने उसे क्यों मारा? लड़के ने मुझे तिरस्कृत नज़र से देखा और अवधी में कहा, ’जातू…’, मतलब चले जाओ, लेकिन यह शब्द एक महिला को सम्बोधित करता है। एक लड़के के लिए लड़की की तरह सम्बोधित होना उन दिनों एक बड़ी गाली मानी जाती थी, और शायद अब भी है! मेरी भी प्रतिक्रिया त्वरित हुई, और मैंने भी उस लड़के को बाएं और दाएं थप्पड़ मारा, जो रोता हुआ और शोर कर रहा था कि वह इसका बदला लेगा। मैं हँसा और घर चला गया।

अगली सुबह कहानी अलग थी, और घटनाक्रम ने एक बदसूरत मोड़ ले लिया। जब मैं अपनी कक्षा में फर्श पर बैठा था (हम फर्श पर एक जूट की चटाई पर बैठते थे जिसे टाट कहा जाता था), कक्षा शुरू होने से पहले परबल सिंह आ गया। उसने मेरे स्कूल बैग को अपने पैर से लात मारी (भारत में यह कुछ बहुत ही अपमानजनक बात मानी जाती है)। मैं खड़ा होकर पूछने लगा कि वह ऐसा क्यों कर रहा है? उसने आरोप लगाया कि मैंने एक दिन पहले उसके दोस्त को पीटा था। इससे मुझे आभास हो गया कि पिछले दिन अनिल सिंह का पीछा करने वाला लड़का वास्तव में उसके कहने पर ऐसा कर रहा था। परबल वास्तव में परिसर में एक जबरदस्त धमकाने वाला लड़का माना जाता था, और वह निश्चित रूप से ऐसा करने में सक्षम भी था।

Source of Image : https://www.istockphoto.com/search/2/image?mediatype=illustration&phrase=children+fighting

मैंने उससे बहुत ही मुखर तरीके से कहा कि अगर वह लड़ाई करना चाहता है तो वह मुझसे स्कूल के बाद मिलें! हैरानी की बात यह है कि वह इसके लिए आसानी से तैयार भी हो गया, जो कि यह सिद्ध कर दिया कि वह अपने क्षमता पर पूरी तरह आश्वस्त था और अपने लड़ाई के विचारों पर दृढ़ प्रतिज्ञ था। इस प्रकार, बिना किसी स्पष्ट सहमति के हमने अपनी लड़ाई के लिए शाम 4 बजे का समय निर्धारित कर दिया। मैंने कक्षा में कुछ फुसफुसाते हुए सुना कि उस दिन मायंग और कोरॐ के ठाकुरों के बीच लड़ाई होने वाली थी। लंच ब्रेक के समय खबर और फैल गई। कोरॐ  प्राइमरी स्कूल से छठी कक्षा में आने वाले छात्रों की संख्या 15 थी, जबकि मायंग के छात्रों की संख्या लगभग 100 थी। और, परबल सातवीं कक्षा में एक दर्जा ऊपर भी था, मतलब उम्र और कद में भी बड़ा था। इसके अलावा, अनिल से किसी मदद की कोई उम्मीद नहीं थी। मुझे स्थिति से निपटने के लिए स्वयं ही साहसी, तत्पर, रणनीतिक और सामरिक कुशलता दिखानी थी, और ये सब ११ वर्ष की उम्र में।

आगे की कहानी क्रमशः ….

Prof. Bal Ram Singh, Founder, HaatNow

गांव का स्नेह-सत्कार

-डॉ. आशा लता पाण्डेय

गाँव, गांव की माटी और माटी की सोंधी गंध….सब मेरी आंखों में, सांसों में रची-बसी है। गांव से बचपन की बहुत सी यादें जुड़ी हैं। बचपन में बहुत बार गांव में आना-जाना होता था। चाचा-चाची, काका-काकी, दादा-दादी वहां रहते थे। शहर से गांव पहुंचने पर बड़ा ही स्नेहमय स्वागत होता था। तब यातायात के इतने साधन नहीं थे तो कभी बैलगाड़ी में, कभी मियांना (पालकी) में चढ़कर जाते थे। करीब आधा घंटा लगता था सड़क से गांव तक पहुंचने में।

जैसे ही हम लोग पहुंचते  थे, पीतल की चमचमाती परात में ठंडे -ठंडे पानी में पैर धोया जाता था। इतना आनंद आता था कि सारी थकान उतर जाती थी और फिर नाउन, काकी बोलते थे हम उनको, वह आकर हम लोगों का पैर दबाती थीं। ठंडे-ठंडे पानी में पूरी थकान उतार के हम सभी तरोताजा हो जाते थे।

खाने के समय हम सभी भाई-बहन चाचा के बच्चे और हम लोग जब खाने बैठते थे तो हमारी काकी हम लोगों की थाली में अपने बच्चों की थाली से ज्यादा घी डालती थीं। यह बात हमें आज तक याद है। हम लोगों के आने की खबर मिलते ही गाँव के सभी लोग मिलने आते थे परोसी दादा (पड़ोस वाले दादा), पडा़इन काकी (पाण्डे काका की धर्म-पत्नी), बरा काका (इस नाम की भी बड़ी रोचक कहानी है कि जब थोड़ा हकलाने वाले शिवपूजन ने अपनी शादी में खाने पर दुबारा से बड़े माँगे तब से पूरा गांव उन्हें ‘बरा’ के नाम से ही जानता है और उनकी पत्नी बन गई बराइन काकी -इन प्रत्यय लगाकर डाक्टराइन, वकीलाइन, मास्टराइन आदि सम्बोधन सुविधानुसार बना लिये जाते थे) और भी इसी तरह के बहुत से लोग जो सम्बन्धी न होते हुए भी सम्बन्धियों जैसे सम्बोधन से बुलाये जाते थे।

ऐसा प्यार आज की दुनिया में कहां? आज तो ये हो गया है कि मैं, मेरा पति और मेरे बच्चे….यहीं तक दुनिया सीमित होकर रह गई है। गांव का जुड़ाव और गांव का स्नेहभरा वातावरण कहीं भी नहीं देखने को नहीं मिलता। आज के तनाव वाले इस युग में यदि हम गाँवों से इस तरह का प्यार, आदर सीख-सिखा सकें तो बहुत सी समस्याऐं हल हो सकती हैं।

तो यह रही मेरी कुछ यादें मेरे गांव की और भी बहुत-सी मीठी यादें हैं…जो हम आपसे समय-समय पर साझा करते रहेंगे तब तक के लिए आप सबको मेरी राम राम।

डॉ. आशा लता पाण्डेय, संस्कृत-शिक्षिका (अवकाश प्राप्त), दिल्ली पब्लिक स्कूल, दिल्ली

शहर की सड़कों से गांव के गलियारों तक

डा. अपर्णा धीर खण्डेलवाल

अक्सर शहरवासियों का मानना है की गांव में रखा क्या है? और ऐसा होता भी है जब हम शहर की चकाचौंध और अपने शहरी लिबास में रहते हैं तो हम गांव की उन छोटी-छोटी बातों को अनदेखा कर देते हैं। ऐसा ही कुछ मेरे साथ भी हुआ जब मैं आज से लगभग 4 वर्ष पहले उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर ज़िले में बसे ’कुरूऊँ गाँव’ गई।

वहां जाकर मैं समझ पाई कि वास्तव में प्राकृतिक रूप में मिला हमें यह जीवन अत्यंत सरल है परंतु हम शहरवासियों ने उसे कॉम्प्लिकेटिड बना दिया है। क्यों नहीं हम सहजता से जीवन जी पाते? क्यों नहीं हम जो खाते हैं उसे सरलता से ग्रहण कर पाते? ऐसे ही कुछ बातों को जब मैंने गांव में कुछ दिन रहते हुए करीब से जाना तो समझ आया कि ग्रामीण शैली ही वास्तव में बहुत सहज और साधारण है।

सौभाग्यवश मुझे तीन-चार दिन ’कुरूऊँ गाँव’ में रुकने का अवसर प्राप्त हुआ। वहाँ मेरे ही कार्यालय के निदेशक का ग्रामीण गृह है। यह गांव की मेरी सर्वप्रथम विज़िट थी।

उस अवसर के दौरान मुझे कभी यह महसूस नहीं हुआ कि मैं उनके परिवार का हिस्सा नहीं हूं क्योंकि बच्चे मुझे ‘बुआ’ बुलाने लगे और बड़े मुझे ‘बेटी’। यूं तो हम शहर में भी अपने घर आए मेहमान को सम्मान देते हैं परंतु उन्हें पारिवारिक हिस्से के रूप में समझ कर बातचीत करना यह शहर में कम देखने को मिलता है। वहां रहते हुए परिवार के बच्चों के साथ में इतना घुल मिल गई कि उन तीन-चार दिनों में बच्चे मुझे एक दिन अपने खेत दिखाने ले गए| जैसे ही हमने घर से बाहर कदम रखा, वहां से ही उनका खेत शुरू हो गया और मैं आराम से जैसे हम शहर में गर्दन ऊंची करके चलते हैं…उसी तरह चलने लगी। तभी मेरे साथ चल रहे 3 साल के बच्चे जोकि मेरे निदेशक के ही भाई का पोता है, उस तेज बल सिंह ने एकदम से मेरा कुर्ता खींचा और मुझे झुककर देखने को कहा ” बुआ! आप आराम से चलिए, यहां हमने मटर बॉय हुई है”। मैं देखकर दंग रह गई कि अभी तो भूमि से अंकुर भी बाहर नहीं आए हैं…भला इस 3 साल के बच्चे को इतना ज्ञान कैसे? क्या यह घर में हो रही बातों को सुनता है? क्या यह खेत में जाकर काम करता है? यह कैसे जान पाया कि जिस स्तह पर मुझे केवल मिट्टी दिखी वहाँ  मटर उगने वाली हैं।

और इस तरह कुछ दूर तक गांव के उन खेतों को घुमाते हुए और उगाए हुए अन्न के विषय में जानकारी देते हुए छोटे-छोटे कदमों से चलते हुए….. घर के बच्चे मुझे गांव के सरल जीवन का ज्ञान दे गए।

डा. अपर्णा धीर खण्डेलवाल, असिस्टेन्ट प्रोफेसर, इन्स्टिटयूट आफ ऎड्वान्स्ट साइन्सीस, डार्टमोथ, यू.एस.ए.

गाँव : देश की धड़कन

Alok Kumar Dwivedi

भारत गाँवों का देश माना जाता है। महात्मा गांधी के इस भाव को उनके वैचारिक अनुयायी आज भी स्वीकार करते हैं। उनके वैचारिकी में भारत का गाँव सुविधाविहीन, अशिक्षित, असंस्कारित एवं दिशाहीन होकर सुशिक्षित, संस्कारयुक्त, संपोष्यभाव को अपनाए हुए तथा जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के सक्षम रूप में उपस्थित होता है। सामान्यतः ऐसा माना जाता है की वर्तमान तकनीकी एवं वैज्ञानिक युग में ग्रामीण व्यवस्था अप्रासंगिक हो गई है। परंतु यह अर्धसत्य है। आज भी ग्रामीण जीवन शैली उत्तम जीवन दशा का द्योतक है। गाँव की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता वहाँ का आपसी साहचर्यभाव रहा है। साथ मिलकर एक दूसरे के सुख-दुख के भागीदार के रूप में आगे बढ़ने की प्रवृत्ति गाँवों को शहरों से पृथक करती है। शहरी व्यवस्था स्वकेंद्रित होती है जहाँ पर रह रहे लोगों के अपने-अपने सामाजिक स्तर होते हैं। जबकि गाँव में आपको समाजवाद का अनोखा रूप सामने मिलता है जो कि पारिवारिक समाजवाद है। इसके अंतर्गत गाँव के समस्त लोग एक दूसरे को अपने परिवार के रूप में स्वीकार करते हैं। यह सिर्फ स्वीकार करने तक सीमित नहीं वरन उनके आपसी पारिवारिक संबोधन भी होते हैं। जैसे- गाँव में रह रहे लोगों का आपसी संबोधन नाम लेकर नहीं बल्कि चाचा, ताऊ, भाई, बहन, चाची, दादी, बाबा इत्यादि रूप में होता है। यह व्यवस्था जाति के सामाजिक ताने-बाने से ऊपर उठी होती है जहाँ एक ब्राह्मण का लड़का वैश्य या शूद्र के बुजुर्ग को चाचा या बाबा कह कर ही पुकारता है। परंतु शहरी व्यवस्था के प्रभाव से वर्तमान में यह भाव कमजोर होता जा रहा है जिसकी बानगी यह कहानी कहती है।

श्याम जिसकी उम्र अभी 12 या 13 वर्ष है, अधिकांशतः वह अपने बगल में रामलाल (जोकि जाति के आधार पर नाई जाति के हैं) के घर पर ही उनके बच्चों के साथ खेलने में बिताता रहा है। श्याम के पिता पंडित श्रीनिवास गाँव में पुरोहित कर्म के साथ-साथ लोगों को सदाचार की भी शिक्षा दिया करते थे। समय बीतने के साथ-साथ जब श्याम की उम्र 18-19 वर्ष की हुई तो उसे विद्या अध्ययन के लिए शहर में भेजा गया। शहर में चार-पांच वर्ष व्यतीत करने के पश्चात् जब वह अपने गाँव वापस आया तो अब उसे रामलाल के घर जाने तथा उनके बच्चों के साथ बैठकर भोजन करने में थोड़ी सी हिचक महसूस होने लगी। उसे रामलाल को काका कहने में भी हिचक लगती थी क्योंकि गाँव के ग्रामीण लोगों के हाव-भाव उसके शहरी मनोदशा से बिल्कुल उलट दिखाई पड़ते थे। शहरी आबोहवा ने श्याम को अपनी पहचान के लिए यद्यपि सचेत तथा दृढ़ कर दिया था परंतु वह पारिवारिक एवं सामाजिक समाजवाद के अपने ग्रामीण परिवेश से काफी दूर हो चुका था। आज के ग्रामीण एवं शहरी व्यवस्था में यह एक प्रमुख अंतर पाया जाता है किस शहरी परिवेश का व्यक्ति अपनी पहचान को स्वयं तक सीमित कर लेता है जबकि ग्रामीण परिवेश में लोग अपनी पहचान एवं अस्तित्व को अन्य लोगों से जोड़कर देखना पसंद करते हैं।

वर्तमान कोरोना कालखंड में बहुत अधिक मात्रा में लोग शहर से गाँव की तरफ पलायन कर आए। उन सबके समक्ष रोजगार का गहरा संकट आया हुआ है। गाँव की एक विशेषता यह भी रही है कि यहाँ पर जल्दी भूखे न तो कोई सोता है तथा नहीं भूख से किसी की मृत्यु होने दी जाती है। आपसी सहयोग की भावना से लोग एक दूसरे की मदद कर देते हैं। कोरोना के इस दौर में सरकार ने भी लोगों के जीवन को आगे बढ़ाने के लिए भरसक प्रयास किया है। पर अब समय है कि भारत के गाँव को आर्थिक दृष्टि से भी समृद्ध किया जाए जिससे कि लोगों का शहरों की तरफ पलायन कम हो सके। इसके लिए गाँव के लोगों को उनके कौशल से साक्षात्कार कराया जाना आवश्यक है। जिसके अंतर्गत गाँव में ही ऐसे संसाधन उपलब्ध कराने होंगे कि गाँव में उत्पादित वस्तुओं को बाजार मिल सके।

हाटनाव इस दिशा में एक बहुउपयोगी प्रयास है। हाटनाव के अंतर्गत हम सब का प्रयास है कि ग्रामीण लोगों द्वारा उत्पादित वस्तुओं एवं सेवाओं के लिए स्थानीय स्तर पर ही बाजार उपलब्ध हो सके। इससे ग्रामीण स्तर की क्षमताओं को प्रकाश में लाने में सहायता होगी तथा वही स्थानीय स्तर पर स्वरोजगार एवं उपलब्ध बाजार के माध्यम से लोग आत्मनिर्भरता के लक्ष्य की ओर अग्रसर होंगे। इस प्रकार वर्तमान तकनीकी युग में हाटनाव, “तकनीक से ग्रामीण आत्मनिर्भरता” अमेरिका के प्रसिद्ध भारतीय वैज्ञानिक एवं चिंतक प्रोफेसर बलराम सिंह का अनोखा प्रयास है। प्रोफेसर सिंह गांधीजी,  विनोबा भावे तथा नानाजी देशमुख के “ग्रामोदय से राष्ट्रोदय” के विचार से काफी प्रभावित हैं तथा उनका लक्ष्य है कि भारत का गाँव आपसी-सौहार्दय, सामंजस्य, प्रेमपूर्ण भावना के साथ रखते हुए आर्थिक आत्मनिर्भरता के लक्ष्यों को प्राप्त कर सके। यही “ग्रामराज्य से रामराज्य” की सरकार होती संकल्पना है।

Alok Kumar Dwivedi (SRF), Research Scholar, Department of Philosophy      University of Allahabad, & TEAM INADS

बेटवा कै लड्डू

बलराम सिंह

इ बात होए क़रीब सन १९९२ कै, जब हमय मासाचूसेट्ट्स यूनिवर्सिटी मॉ पढ़ावत क़रीब दुई साल भा रहा होए। वैसे तौ अमेरिका मॉ रहत हमका लगभग नौ साल होईगा रहा, लकिन विद्यार्थी जीवन कै बात कुछ और होथै, सब पढ़ाई लिखाई के काम मॉ लगा रहाथे,  एतना फ़ुरसत नाहीं मिलत कि कौनव सामाजिक चर्चा होइ सकय। ज़्यादा से ज़्यादा घर परिवार कै बात होय पावत रही।

बॉस्टन के थोड़ी दूर पै एक जगह डार्ट्मथ अहै, जहाँ पै हम परिवार सहित रहत रहन। एक दिन बग़ल के छोटे शहर वेस्टपोर्ट कै निवासी विवेक नायक के घर म दावत रही। अमरीका मॉ ज़्यादातर लोगै भारत के विभिन्न प्रांत से आवाथे, कुछ जनेन का तौ वहि प्रदेश से केहू पहिली बार मिला थे। लोगन का जिज्ञासा रहाथै एक दूसरे कै सभ्यत-संस्कृति या रीति-रिवाज जानै कै।

This image has an empty alt attribute; its file name is image.png

यहि प्रकार से कुछ चर्चा महाभारत के बारे मॉ चलति रही। बीआर चोपड़ा वाले महाभारत सीरीयल कै ज़माना रहा। तबकै प्रथा कैसनि रही कि द्रौपदी के पाँच पाँच पति रहे, वग़ैरह वग़ैरह। तब विवेक नायक, जवन कि भारत मा महाराष्ट्र कै रहिन, बतावै लागिन कि कैसे ई प्रथा तौ उत्तर प्रदेश मॉ अबहिनो चलाथै। हमरी ओर देखि के कहै लागिन कि जब वे अमेरिका आवै के पहिले बम्बई मा रहिन, अउर उहाँ ‘भैया लोग’ बहुत रहिन। भैया लोग पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोगन बम्बई मा कहा जाथै,  काहेकि अवध क्षेत्र मा भैया शब्द बड़े प्रेम,  आदर और स्नेह से कहि जाथै। गांव देश मा बेरोजगारी के कारण दिल्ली बम्बई जाइके कुछ कमाथे,  और वही मह से बचाइ के कुछ घरहूं भेजाथे। दु दु तिन तिन साल घरहिन नाहीं जाय पउतिन।

विवेक नायक की कहानी अनुसार एक दिन वनके ऑफिस मा काम करै वाला एक भैया लड्डू का पैकेट हाथ मा लइके बड़ी खुशी मा बांटै लाग। तबहिन कौनउ पूछै लाग कि कौनी ख़ुशी मा लड्डू बाँटत हौ भाई?  उ बड़ी उत्साह के साथ कहिस कि बेटवा पैदा भा बॉय। विवेक के अनुसार सबका पता रहा कि वहकर मेहरिया तौ गांवां माँ रहाथै और उ भैया का तौ घरे गए डेढ़ साल से ज्यादा समय होइगा रहा। केउ पुछित कि कैसे पता लागि कि बेटा पैदा भा अहै,  तब उ कहिन गांव से भइया कै चिट्ठी आई रही (वहि समय मा गांव देश म फोन नहीं होत रहा। तब बम्बइया अकिल लगाइन उ सब,  और यहि निष्कर्ष पै पहुंचिन कि इनके बेटवा होय कै मतलब इनकी पत्नी का लड़िका पैदा भा अहै, तौ मतलब वहकर इहै निकला कि सारे भाई मिलके एक पत्नी रखे होइ हैं।  

अइसन भ्रान्ति यहि लिए बनी रही कि भारत कै सांस्कृतिक विभिन्नता के बारे मा अनभिज्ञ अहैं। अवध क्षेत्र अउर खास कइके संयुक्त परिवार कै परम्परा ई होथै कि भाई कै संतान आपन संतान मानी जा थै। परम्परावादी परिवार मा तो अबहिनो अपने पिता जी के बड़े भाई लोगन का बड़े पिता जी,  मझले पिता जी,  इत्यादि ही कहिके बुलावा जाथै। हमरे खुद के घर मा जवन कि संयुक्त परिवार आय,  बड़े पापा, अमेरिका पापा,  दूध पापा (जवन भाई घर के गाय भैंस कै देखभाल कराथें) ही सम्बोधित कइके बुलावा जाथे।

कइसन महान परंपरा वाला देश आय। हुआँ हलवाहे या नौकरौ का काका,  भैया,  और वनके मेहरारू का काकी,  भौजी कहिके बोलावा जाथै! ई समाजवाद लाख माओ या मार्क्स पैदा होइ जायँ तबौ नाही लाय सकतिन। औ यहीं से संस्कार शुरू होथै ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ कै।  अउर एहकै प्रेरणा स्रोत तौ अवध नगरी के राम,  भरत, लक्ष्मण, व शत्रुघ्न ही होइ सकाथें। 

Prof. Bal Ram Singh, Founder, HaatNow

मैंने गाँव देखा है…

श्रीमति प्रीति कौशिक

मैंने गाँव देखा है..

जहाँ शहरों में हम ज़रूरत में खुद को अकेला पाते हैं,

वहाँ गाँव में मैंने बड़ों से अपने, सर पे हाथ फेरते देखा है।

मैंने गाँव देखा है.. 

जहाँ शहरों में ज़िन्दगी भागती जाती है,

वहाँ गाँव में मैंने बुढ़ापा भागते देखा है।

मैंने गाँव देखा है..

जहाँ शहरों में हर नज़र से डर लगता है,

वहाँ मैंने गाँव में हर रिश्ते को अपनाते देखा है।

मैंने गाँव देखा है..

जहाँ शहरों में सड़कों पे गाड़ियों की धूल उड़ती है,

वहाँ मैंने गाँव के खेतों में फसलों को उगते देखा है

मैंने गाँव देखा है..

जहाँ शहरों में लोगों को ऐ.सी. में भी नींद नहीं आती,

वहाँ मैंने गाँव में मंझी पे लोगों को पेड़ों के नीचे सोते देखा है।

मैंने गाँव देखा है..

जहाँ शहरों में लोग सड़कों पे मरते रहते हैं या लोग वीडियो बनाते हैं,

वहाँ मैंने गाँव में लोगों को हल्की-सी सर्दी में भी हाल-चाल पूछते देखा है।

हाँ मैंने गाँव देखा है..

Mrs. Preeti Kaushik, Office and Market Coordinator, HaatNow

ग्रामीण-समाज की व्यवस्था में रिश्तों की गहराई की झलक

डा. अपर्णा धीर खण्डेलवाल

शहरवासियों की दृष्टि में गाँव एवम् ग्रामीणवासी सदैव ही सादा जीवन, सरल बोली, साधारण वेशभूषा, तथा सात्त्विक भोजन की छाप छोडे़ हुए है। मन में ऎसी ही छवि बिठाऐ हुए संयोगवश आज से लगभग चार वर्ष पहले मुझे भी एक गाँव में जाने का अवसर प्राप्त हुआ। मैं चर्चा कर रही हूँ उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर ज़िले में बसे ’कुरूऊँ गाँव’ की। यूँ तो मैं मुख्य रूप से इस गाँव में स्थित ’कुरूऊँ विद्यालय’ के विद्यार्थियों को ‘सोशल मीडिया का शिक्षा-क्षेत्र में योगदान’’ विषय पर आयोजित कार्यशाला में शिक्षित करने हेतु गयी थी परन्तु वहाँ जाकर मैनें ग्रामीण-परिवेश को बढ़े करीब से जाना।

गाँव में रहने वाले परिवारों में आपसी सामाञ्जस्य को मैनें वहाँ कुछ दिन बिताकर महसूस किया। रिश्तों की गहराई, अपनापन तथा परस्पर सम्मान की दृष्टि के लिये सदैव ही भारतीय संस्कृति को विश्वपटल पर याद किया जाता है। इन्हीं सबकी झलक से मैं ’कुरूऊँ गाँव’ में रूबरू हुई। परिवार में साथ रहते हुए एक-दूसरे के बच्चों का लालन-पालन अपने बच्चे की तरह करना, यह गाँव में सामान्यत: दृश्यमान है। गाँव के प्रत्येक जन को काका, अम्मा, भाभी, दीदी, भैया, मोसी आदि कहकर सम्बोधित करना गाँव की अपनी विशेषता है जिसका शहरों में अधिक प्रचलन नहीं है। इस तरह सम्बोधन करने से आपसी मनमुटाव कम ही होता है, परस्पर स्नेह की भावना जागृत होती है, अपने परिवार के सदस्यों की तरह ही सारा गाँव नज़र आता है, एवम् लोकाचार से परे किसी प्रकार का विसंगत व्यवहार प्राय: देखने को नहीं मिलता। बड़ों के प्रति श्रद्धापूर्वक पाँव छूने की प्रथा यद्यपि शहरों में लगभग लुप्त होती जा रही है तथापि ग्रामीण-समाज में आज भी इसे अत्यन्त सम्मानीय माना जाता है। शहर आज जितने बड़े होते जा रहे हैं, वहाँ रहने वाले परिवार उतने ही छोटे होते जा रहे हैं परन्तु गाँव में आज भी मुख्यत: संयुक्त परिवार का प्रचलन है। सबकी अच्छाईयों और कमियों को समझकर आपसी सामञ्जस्य और प्रेम के साथ रहना ही ग्रामीण-जीवन की देन है। इन्हीं सब विचारों को समेटे हमारे ग्रामीण-समाज को निश्चित ही भारतीय परम्परा की सुदृढ़ नींव मानना अतिशयोक्ति नहीं होगी।

डा. अपर्णा धीर खण्डेलवाल, असिस्टेन्ट प्रोफेसर, इन्स्टिटयूट आफ ऎड्वान्स्ट साइन्सीस, डार्टमोथ, यू.एस.ए.

कैसे गाँव ही विकास की इकाई तथा सभ्यता है?

बलराम सिंह

अभी जब महामारी का समय आया, तब लोग गांव की तरफ भागने लगे, बहुत सारे लोग गांव की तरफ चले गए, क्योंकि लोगों को गांव एक सुरक्षित जगह लगती है, ऐसा मुझे लगता है। मैं भी एक गांव का रहने वाला हूँ, जोकि अयोध्या के पास है। हमारे गाँव का नाम बड़ा अजीब-सा है। उसका नाम है कुरुओम, इससे ज्यादा वृहद अर्थ एक गांव का नहीं हो सकता। कुरुओम का अर्थ है, सारे संसार को ओममय कीजिये।  ओम में सिर्फ देश नहीं आता, धरती नहीं आती, बल्कि पूरा ब्रह्मांड आता है। गांव का नाम  इस  तरह से लिखा जाता था (कोरौं), उसको मैं दूसरी तरह कौरव या बांस के कोरो से जोड़कर सोचता था। लेकिन बाद में मैने उसका अध्ययन किया, तो इसकी उत्पत्ति कुरुॐ से सहज भाव से प्रतीत हो गई। 

मैंने यह अनुभव किया कि सारी सभ्यता गांव की ही सभ्यता है। मैं  कई देशों में जा चुका हूँ , अमेरिका में रहता हूँ । यहाँ पर अगर कोई village होता है, उसको बहुत अच्छा मानते हैं।  यहाँ पर उसको countryside living कहते हैं । और यहाँ पर गाँव में रहना सम्मानजनक माना जाता है। मैं सोचता हूँ  कि, सभ्यता दरअसल गाँव की ही है।

यहाँ पर हमें एक और बात पर ध्यान देना चाहिए जोकि बड़ी रोचक एवं प्रासंगिक है। बात मैं यहाँ यह उठाना चाहता हूँ कि, गांव सभा होती है, नगर सभा नहीं सुना होगा आपने कभी। सभ्यता शब्द की उत्पत्ति सभा से है, अतः सभ्यता तो सभा से आती है, इसलिए वह गांव में ही हो सकती है।  नगर में तो नगर निगम होता है। आप कभी निगम्यता नहीं सुनते कि, किसी देश की निगम्यता क्या है?  जो निगम हैं, हमारे यहाँ जो शास्त्र हैं, वेद भी उसमें आता है, वह है कि, मान्यता पहले ऊपर से होती है, फिर नीचे उसको सिद्ध किया जाता है। जबकि गांव की सभ्यता जो है, वह गाँव से क्या विचार निकलते हैं, वही सभ्यता का रूप लेते हैं। निगम वह होगा, जो ऊपर से कोई कह रहा है । सभ्यता में नीचे से ऊपर की ओर बात होती है, जहां सभा में बैठकर बात की जाती है। अगर इस दृष्टिकोण से देखें, तो भारत में पूरी तरह से गांव की सभ्यता ही है। सभा के महत्त्व को दर्शाने वाला सुभाषित का एक श्लोक है, जिसे मैंने मिडिल स्कूल में सुना था –

माता शत्रुः पिता वैरी येन  बालो  न पाठितः|

न शोभते सभा मध्ये हंस मध्ये बको  यथा||

अर्थात –   वह्  माता एक शत्रु के समान है और पिता वैरी के समान है, जो अपने बालकों तथा बालिकाओं को शिक्षित नहीं करते हैं, क्योंकि आगे के जीवन में वे सभा में शोभायमान नहीं होते है  हैं, ठीक उसी तरह जैसे कि सुन्दर हंसों के झुण्ड में एक बगुला| यहाँ पर सभा की संज्ञा हँस  हंस  से दी गयी है, जिसे उसके दो विशेष गुणों के लिए जाना जाता है, एक है सुन्दरता और दूसरा है विवेक। हँस हंस के विवेक की क्षमता को ऐसी सूक्षम्ता एवं उत्कृष्टता से नापा जाता है, जिसमे जिसमें उसके अन्दर दूध और पानी को पृथक करने की कुशलता हो। इसीलिए उसे ज्ञान की देवी माता सरस्वती का वाहन माना गया है। इस प्रकार सभा एक अत्यंत उच्च कोटि की परम्परा को दर्शाती है। और इस परंपरा की संस्कृति पुरातन काल से ही गाओं गावों में ही विद्यमान है|

भारत में दो बड़े महाकाव्य हुए हैं, महाभारत एवं रामायण, जो  भारतीय  इतिहास की दो बड़ी घटनाओं पर आधारित हैं। दोनों में आपको गांव की सभ्यता दिखाई पड़ती है।  पुरातात्विक स्थल राखीगढ़ी को कुछ लोग नगर सभ्यता बोलते हैं, लेकिन वह अभी भी गाँव ही है। मैं कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में भाग लेने २०१९ में गया था, और पाया कि वहाँ स्थानीय लोग राखीगढ़ी गांव बोलते हैं, पर न जाने किस मानसिक परतंत्रतावश शोधकर्ता जो कि शहरी मानसिकता के होते हैं, उसे नगर बुलाते हैं। संभवतः वह सिविलाइज़ेशन (सभ्यता), जो कि  पाश्चात्य जगत में सिटी (नगर) के प्रादुर्भाव पर आधारित है, की परिकल्पना की आपूर्ति के लिए नगर ही मानने में अपना मान समझते हैं।

इसी तरह गुड़गांव, जो कि गुरु द्रोण का ग्राम था, वहाँ भी गाँव की ही सभ्यता थी।

मैं जब भी भारत आता हूँ, आपने अपने गांव जरूर जाता हूँ।  हमारा संयुक्त परिवार है वहाँ। वहाँ रहता हूँ,  और मुझे वहाँ की सारी बातें पता हैं। कम-से-कम हफ्ते, दो हफ्ते मैं वहाँ रहता हूँ। मैंने देखा हुआ है कि जब बिजली नहीं आती है, तो लोगों को क्या परेशानी होती है। मैं वहाँ के (उत्तर प्रदेश) के उप मुख्यमंत्री, डॉ. दिनेश शर्मा जी से एक बार मिला, उन्होंने कहा कि गांव में हमने 18 घंटे बिजली कर दी है और शहर में हमने 24 घंटे बिजली कर दी है। मैंने कहा, उसका उल्टा करके देखिये। गांव में 24 घंटे बिजली दीजिए और शहरों में 18 घंटे। फिर आपको पता लगेगा गांव का विकास कैसे हो सकता है। गांव को इस तरह से भारत की आधुनिक शासन-व्यवस्था में हमारे गाँव मूल रूप से उपेक्षित रहा है, रहे हैं। जिसके कारण ही भारत की सभ्यता अपनी जड़ों को नहीं पकड़ पा रही है।

महाभारत के एक प्रसंग को यदि देखें, तो श्री कृष्ण  जब एक शांति दूत बनकर हस्तिनापुर गए थे, तो उन्होंने महाराज धृतराष्ट्र से पांच गांव (पांच गांव जो कृष्ण ने पांडवों के लिए मांगे थे – अविस्थल, वरकास्थल, मकांदी, वारणावत और एक नामरहित गाँव) मांगे, पाँच शहर नहीं मांग रहे थे। इसका मतलब गांव से आदान-प्रदान होता था। गांव से ही राज्य होता था।  गांव विकास की एक इकाई रही है।

भारत में आज भी साढ़े छह लाख गांव हैं। मैं गांव का रहने वाला रहने वाला हूँ । वहाँ पर मैं भी अपनी तरफ़ से थोड़ा प्रयत्न कर रहा हूँ। मैंने एक हाटनाव ऐप बनवाया है, जिससे गाँव के लोग आत्मनिर्भर हो सकें, और गाँव का स्थानीय विकास हो। गाँव में आज भी सभ्यता बहुत हद तक जीवित है।  अभी भी मुझे वहाँ कोई बलराम सिंह नहीं पुकारता, ना ही प्रोफेसर सिंह कहता है। कोई मुझे काका बोलता है, तो कोई मामा, कोई  बाबा पुकारता है, और कोई नाना, चाहे वह किसी भी जाति का हो। मतलब यह है कि हमारे रिश्ते होते हैं गांव की सभ्यता में। सारी दुनिया में कम्यूनिज़्म और समाजवाद की जो बात कही जाती है, वह भारत के गावों में व्यवहार में लायी जाती है। इस तरह से हमारे गाँव ही सभ्यता का सही मायने में प्रतिनिधित्व करते हैं।

Prof. Bal Ram Singh, Founder, HaatNow