गांव से सैर – लड़ाई की नीति, रणनीति, एवं जीवन की सीख

बलराम सिंह

कहानी मेरी छठी कक्षा के दूसरे सप्ताह की है। मैं करीब 11 साल का था। मेरे गाँव का एक लड़का था, अनिल सिंह, जो कि अपनी बहन कृष्णा सिंह के साथ, सातवीं कक्षा में पढता था। वे हमारे गांव के एक पट्टीदार परिवार से थे, जिसका सैकड़ों साल पुराना कुछ हद तक एक प्रतिद्वंद्विता का इतिहास रहा है। दरअसल, हमारे परिवार कुछ काल पहले दो भाइयों की एक शाखा से थे, शायद 20-30 पीढ़ी पहले। परिवार में हमारा पक्ष बड़े भाई चोपई सिंह का है, और उनका पक्ष छोटे भाई मोहकम सिंह की ओर से है। हमारे परिवार किसी भी शादी या मौत के कार्यक्रम में परिवार की भाँति शामिल तो होते हैं, लेकिन एक-दूसरे के घर में प्रायः खाना नहीं खाया करते। यह व्यवहार यह दर्शाता है कि पारिवारिक सम्बन्ध होने के वावजूद आपसी मतभेद व तनाव बना रहता है, जो कि कभी कभी वैमनस्य में भी बदल जाता है

वैसे भी, अनिल ने मुझे अपने गाँव से लगभग 2-3 मील दूर, पास के गाँव, मायंग के एक लड़के, परबल (संभवतः प्रबल का अपभ्रंस होगा) सिंह ,जो कि शरीर से कुछ भारी-भरकम था,  से मिलवाकर परिचय करवाया था। परबल के चचेरे भाई नरेंद्र सिंह भी 7वीं कक्षा में थे। उनके चाचा श्री शीतला सिंह मेरे अंग्रेजी के शिक्षक थे। हमारे गांव कोरौं (कोरो, अब कुरुॐ) में 7 ठाकुर परिवारों की तुलना में उनका गांव 90 ठाकुर परिवारों (कई गुंडों और गुंडों के लिए भी) के लिए जाना जाता था। मुझे स्कूल के स्लाइड उपकरण के पास परबल से मिलवाया जाना याद है। परबल थोड़ा गुस्सैल लग रहा था, लेकिन मुझे उच्च ग्रेड के किसी व्यक्ति से मिल कर खुशी हुई थी।

Bal Ram Singh at age 14

उन दिनों स्कूल शाम को ४ बजे बन्द होता था। अगले सप्ताह जो कि मेरा दूसरा सप्ताह था,  मैं अन्य सहपाठियों के साथ स्कूल बन्द होने के बाद घर जा रहा था। हम अभी स्कूल की सीमा के बाहर निकले ही थे, जब मैंने देखा कि एक लड़का अनिल का पूरी गति से पीछा कर रहा था। वह लड़का मुश्किल से अनिल तक पहुँच गया, और पीछे से उसके सिर के नीचे गर्दन पर जोर से थप्पड़ मारा। इस पर मुझमें तिरस्कार की स्वाभाविक प्रतिक्रिया हुई, और हमारे गाँव में एक तरह से प्रतिद्वंद्वी परिवारों से आने के बावजूद भी मुझे बड़ा ही बुरा लगा, और मैंने दूसरे लड़के से पूछा कि उसने उसे क्यों मारा? लड़के ने मुझे तिरस्कृत नज़र से देखा और अवधी में कहा, ’जातू…’, मतलब चले जाओ, लेकिन यह शब्द एक महिला को सम्बोधित करता है। एक लड़के के लिए लड़की की तरह सम्बोधित होना उन दिनों एक बड़ी गाली मानी जाती थी, और शायद अब भी है! मेरी भी प्रतिक्रिया त्वरित हुई, और मैंने भी उस लड़के को बाएं और दाएं थप्पड़ मारा, जो रोता हुआ और शोर कर रहा था कि वह इसका बदला लेगा। मैं हँसा और घर चला गया।

अगली सुबह कहानी अलग थी, और घटनाक्रम ने एक बदसूरत मोड़ ले लिया। जब मैं अपनी कक्षा में फर्श पर बैठा था (हम फर्श पर एक जूट की चटाई पर बैठते थे जिसे टाट कहा जाता था), कक्षा शुरू होने से पहले परबल सिंह आ गया। उसने मेरे स्कूल बैग को अपने पैर से लात मारी (भारत में यह कुछ बहुत ही अपमानजनक बात मानी जाती है)। मैं खड़ा होकर पूछने लगा कि वह ऐसा क्यों कर रहा है? उसने आरोप लगाया कि मैंने एक दिन पहले उसके दोस्त को पीटा था। इससे मुझे आभास हो गया कि पिछले दिन अनिल सिंह का पीछा करने वाला लड़का वास्तव में उसके कहने पर ऐसा कर रहा था। परबल वास्तव में परिसर में एक जबरदस्त धमकाने वाला लड़का माना जाता था, और वह निश्चित रूप से ऐसा करने में सक्षम भी था।

Source of Image : https://www.istockphoto.com/search/2/image?mediatype=illustration&phrase=children+fighting

मैंने उससे बहुत ही मुखर तरीके से कहा कि अगर वह लड़ाई करना चाहता है तो वह मुझसे स्कूल के बाद मिलें! हैरानी की बात यह है कि वह इसके लिए आसानी से तैयार भी हो गया, जो कि यह सिद्ध कर दिया कि वह अपने क्षमता पर पूरी तरह आश्वस्त था और अपने लड़ाई के विचारों पर दृढ़ प्रतिज्ञ था। इस प्रकार, बिना किसी स्पष्ट सहमति के हमने अपनी लड़ाई के लिए शाम 4 बजे का समय निर्धारित कर दिया। मैंने कक्षा में कुछ फुसफुसाते हुए सुना कि उस दिन मायंग और कोरॐ के ठाकुरों के बीच लड़ाई होने वाली थी। लंच ब्रेक के समय खबर और फैल गई। कोरॐ  प्राइमरी स्कूल से छठी कक्षा में आने वाले छात्रों की संख्या 15 थी, जबकि मायंग के छात्रों की संख्या लगभग 100 थी। और, परबल सातवीं कक्षा में एक दर्जा ऊपर भी था, मतलब उम्र और कद में भी बड़ा था। इसके अलावा, अनिल से किसी मदद की कोई उम्मीद नहीं थी। मुझे स्थिति से निपटने के लिए स्वयं ही साहसी, तत्पर, रणनीतिक और सामरिक कुशलता दिखानी थी, और ये सब ११ वर्ष की उम्र में।

आगे की कहानी क्रमशः ….

Prof. Bal Ram Singh, Founder, HaatNow

शहर की सड़कों से गांव के गलियारों तक

डा. अपर्णा धीर खण्डेलवाल

अक्सर शहरवासियों का मानना है की गांव में रखा क्या है? और ऐसा होता भी है जब हम शहर की चकाचौंध और अपने शहरी लिबास में रहते हैं तो हम गांव की उन छोटी-छोटी बातों को अनदेखा कर देते हैं। ऐसा ही कुछ मेरे साथ भी हुआ जब मैं आज से लगभग 4 वर्ष पहले उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर ज़िले में बसे ’कुरूऊँ गाँव’ गई।

वहां जाकर मैं समझ पाई कि वास्तव में प्राकृतिक रूप में मिला हमें यह जीवन अत्यंत सरल है परंतु हम शहरवासियों ने उसे कॉम्प्लिकेटिड बना दिया है। क्यों नहीं हम सहजता से जीवन जी पाते? क्यों नहीं हम जो खाते हैं उसे सरलता से ग्रहण कर पाते? ऐसे ही कुछ बातों को जब मैंने गांव में कुछ दिन रहते हुए करीब से जाना तो समझ आया कि ग्रामीण शैली ही वास्तव में बहुत सहज और साधारण है।

सौभाग्यवश मुझे तीन-चार दिन ’कुरूऊँ गाँव’ में रुकने का अवसर प्राप्त हुआ। वहाँ मेरे ही कार्यालय के निदेशक का ग्रामीण गृह है। यह गांव की मेरी सर्वप्रथम विज़िट थी।

उस अवसर के दौरान मुझे कभी यह महसूस नहीं हुआ कि मैं उनके परिवार का हिस्सा नहीं हूं क्योंकि बच्चे मुझे ‘बुआ’ बुलाने लगे और बड़े मुझे ‘बेटी’। यूं तो हम शहर में भी अपने घर आए मेहमान को सम्मान देते हैं परंतु उन्हें पारिवारिक हिस्से के रूप में समझ कर बातचीत करना यह शहर में कम देखने को मिलता है। वहां रहते हुए परिवार के बच्चों के साथ में इतना घुल मिल गई कि उन तीन-चार दिनों में बच्चे मुझे एक दिन अपने खेत दिखाने ले गए| जैसे ही हमने घर से बाहर कदम रखा, वहां से ही उनका खेत शुरू हो गया और मैं आराम से जैसे हम शहर में गर्दन ऊंची करके चलते हैं…उसी तरह चलने लगी। तभी मेरे साथ चल रहे 3 साल के बच्चे जोकि मेरे निदेशक के ही भाई का पोता है, उस तेज बल सिंह ने एकदम से मेरा कुर्ता खींचा और मुझे झुककर देखने को कहा ” बुआ! आप आराम से चलिए, यहां हमने मटर बॉय हुई है”। मैं देखकर दंग रह गई कि अभी तो भूमि से अंकुर भी बाहर नहीं आए हैं…भला इस 3 साल के बच्चे को इतना ज्ञान कैसे? क्या यह घर में हो रही बातों को सुनता है? क्या यह खेत में जाकर काम करता है? यह कैसे जान पाया कि जिस स्तह पर मुझे केवल मिट्टी दिखी वहाँ  मटर उगने वाली हैं।

और इस तरह कुछ दूर तक गांव के उन खेतों को घुमाते हुए और उगाए हुए अन्न के विषय में जानकारी देते हुए छोटे-छोटे कदमों से चलते हुए….. घर के बच्चे मुझे गांव के सरल जीवन का ज्ञान दे गए।

डा. अपर्णा धीर खण्डेलवाल, असिस्टेन्ट प्रोफेसर, इन्स्टिटयूट आफ ऎड्वान्स्ट साइन्सीस, डार्टमोथ, यू.एस.ए.

ग्रामीण-समाज की व्यवस्था में रिश्तों की गहराई की झलक

डा. अपर्णा धीर खण्डेलवाल

शहरवासियों की दृष्टि में गाँव एवम् ग्रामीणवासी सदैव ही सादा जीवन, सरल बोली, साधारण वेशभूषा, तथा सात्त्विक भोजन की छाप छोडे़ हुए है। मन में ऎसी ही छवि बिठाऐ हुए संयोगवश आज से लगभग चार वर्ष पहले मुझे भी एक गाँव में जाने का अवसर प्राप्त हुआ। मैं चर्चा कर रही हूँ उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर ज़िले में बसे ’कुरूऊँ गाँव’ की। यूँ तो मैं मुख्य रूप से इस गाँव में स्थित ’कुरूऊँ विद्यालय’ के विद्यार्थियों को ‘सोशल मीडिया का शिक्षा-क्षेत्र में योगदान’’ विषय पर आयोजित कार्यशाला में शिक्षित करने हेतु गयी थी परन्तु वहाँ जाकर मैनें ग्रामीण-परिवेश को बढ़े करीब से जाना।

गाँव में रहने वाले परिवारों में आपसी सामाञ्जस्य को मैनें वहाँ कुछ दिन बिताकर महसूस किया। रिश्तों की गहराई, अपनापन तथा परस्पर सम्मान की दृष्टि के लिये सदैव ही भारतीय संस्कृति को विश्वपटल पर याद किया जाता है। इन्हीं सबकी झलक से मैं ’कुरूऊँ गाँव’ में रूबरू हुई। परिवार में साथ रहते हुए एक-दूसरे के बच्चों का लालन-पालन अपने बच्चे की तरह करना, यह गाँव में सामान्यत: दृश्यमान है। गाँव के प्रत्येक जन को काका, अम्मा, भाभी, दीदी, भैया, मोसी आदि कहकर सम्बोधित करना गाँव की अपनी विशेषता है जिसका शहरों में अधिक प्रचलन नहीं है। इस तरह सम्बोधन करने से आपसी मनमुटाव कम ही होता है, परस्पर स्नेह की भावना जागृत होती है, अपने परिवार के सदस्यों की तरह ही सारा गाँव नज़र आता है, एवम् लोकाचार से परे किसी प्रकार का विसंगत व्यवहार प्राय: देखने को नहीं मिलता। बड़ों के प्रति श्रद्धापूर्वक पाँव छूने की प्रथा यद्यपि शहरों में लगभग लुप्त होती जा रही है तथापि ग्रामीण-समाज में आज भी इसे अत्यन्त सम्मानीय माना जाता है। शहर आज जितने बड़े होते जा रहे हैं, वहाँ रहने वाले परिवार उतने ही छोटे होते जा रहे हैं परन्तु गाँव में आज भी मुख्यत: संयुक्त परिवार का प्रचलन है। सबकी अच्छाईयों और कमियों को समझकर आपसी सामञ्जस्य और प्रेम के साथ रहना ही ग्रामीण-जीवन की देन है। इन्हीं सब विचारों को समेटे हमारे ग्रामीण-समाज को निश्चित ही भारतीय परम्परा की सुदृढ़ नींव मानना अतिशयोक्ति नहीं होगी।

डा. अपर्णा धीर खण्डेलवाल, असिस्टेन्ट प्रोफेसर, इन्स्टिटयूट आफ ऎड्वान्स्ट साइन्सीस, डार्टमोथ, यू.एस.ए.